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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० २०९ ३० ३१ सू० १ अश्रुत्वाधर्मादिलाभनिरूपणम ६६३ सकाशाद् वा यावत् केवलिश्रावकमभृतेः सकाशाद् वा तत्पाक्षिकोपासिकायाः सकाशाद् वा संयमोपदेशमश्रुत्वाऽपि केवलेन विशुद्धन संयमेन संयच्छेत् संयमकुर्यात् . अथ च 'अन्थेगइए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा' अस्त्येककः कश्चित् पुरुषः केलिप्रभृतीनां सकाशात् संयमोपदेशमश्रुत्वा खलु केवलेन संयमेन नो संयच्छेत् , गौतमः पाह-'से केणटेणं नाव नो संजमेज्जा ?' भदन्त ! तत् केनाथेन यावत्-अस्त्येककः कश्चित् केवलिप्रभृतेः सकाशाद् संयमोपदेशमश्रुत्वाऽपि केवलेन संयमेन संपमं कुर्यात् , अस्त्ये फकः अपरः कश्चित्त नथाविधमकृत्वा केवलेन संयमेन नो संघ छन् ? भगवानाह- गोयमा ! जस्स णं जयणावरणिज्जाणं जीव ऐसा भी होता है जो केवली से या यावत् उनके श्रावक आदि से या तत्पाक्षिक उपासिका से संयम का उपदेश विना सुने भी केवल संयम की यतना कर सकता है और (अत्थेगइए केवलेणं संजमेणं नो संजमेजा) कोई एक जीव ऐसा होता है जो केवली आदि से उपदेश सुने विना शुद्ध संयम द्वारा संयम की यतना नहीं कर सकता है ? (से केणढणं जाव नो संजमेज्जा) इसमें गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं कि हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि कोई जीव केवली से या यावत् उनके श्रावक आदि से संयम का उपदेश नहीं सुने विना भी केवल संयम के द्वारा संयम की यतना कर सकता है और कोई जीव संयम की यतना नहीं कर सकता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा) हे गौतम ! (जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवએવો પણ હોય છે કે જે કેવલી પાસે અથવા તેમના પક્ષની ઉપાસિકા પર તની કોઈ વ્યક્તિ સમીપે સંયમને ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના પણ શુદ્ધ સંયમ द्वारा सयभनी यतना शई छ, भने “ जत्थेगइए केवलेणं संजमेण नो संजमेज्जा" ४४ ७१ सवा ५ डाय छे उशी माहिनी पासे सयમને ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના શુદ્ધ સંયમદ્વારા સંયમની યતના કરી શકતો નથી, गौतम स्वाभान प्रश्न-" से केणटेण जाव नो संजमेज्जा ?" ભદન્ત ! આપ શા કારણે એવું કહો છો કે કોઈ જીવ કેવલી વગેરેની પાસે સંયમનો ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના પણ શુદ્ધ સંયમદ્વારા સંયમની યતના કરી શકે છે, અને કોઈ જીવ તેમને ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના શુદ્ધ સંયમદ્વારા સંયમની યતના કરી શકતું નથી? महावीर प्रभुना उत्तर--" गोयमा !" गीतम! (जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, से णं असोच्चाण केवलिस वा जाव श्री भगवती सूत्र : ७
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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