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________________ प्रमेयचन्द्रिका रीका श०८ उ० १० १० ६ कर्म प्रकृतिनिरूपणम् ५१९ स्यात् नो आवेष्टित परिवेष्टितः, यदि आवेष्टितपरिवेष्टितो नियमात् अनन्तैः । एकैकस्य खलु भदन्त ! नैरयिकस्य एकैको जीवपदेशः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः कियद्भिः अविभागपरिच्छेदैः आवेष्टितपरिवेष्टितः ? गौतम ! नियमात् अनन्तैः यथा नैरयिकस्य एवं यावत् वैमानिकस्य, नवरं मनुष्यस्य यथा जीवस्य एकैकस्य रिच्छेदों से आवेष्टितपरिवेष्टित हो रहा है ? ( गोयमा) हे गौतम ! (सिय आवेढियपरिवेढिए, सिय नो आवेढियपरिवेढिए ) एक २ जीव का एक एक प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के अविभाग परिच्छेदो से कदाचित् आवेष्टितपरिवेष्टित होता भी है और कदाचित् आवेष्टिनपरिवेष्टित नहीं भी होता है। (जइ आवेढियपरिवेढिए नियमा अणतेहिं ) यदि वह आवेष्टित परिवेष्टित हो तो नियम से ज्ञानावरणीय कर्म के अनन्त अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित रहा करता है। ( एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिजस्स कम्मरस केवइएहिं अविभागपलिच्छेएहिं आवेढियपरिवेढिए) हे भदंत! एक एक नैरयिक का एक एक जीव प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित हो रहा है ? (गोयमा ! नियमा अणंतेहिं) हे गौतम! एक एक नैरयिक का एक एक जीव प्रदेश नियम से ज्ञानावरणीय कर्म के अनन्तप्रदेशों से आवेष्टित परिवेष्टित એક જીવનો એક એક જીવપ્રદેશ જ્ઞાનાવરણીય કમના કેટલા અવિભાગી परिछेहो साये आवेष्टित पश्विाटत २४ २हो होय छे ? (गोयमा !) है गौतम ! (सिय आवेढियपरिवेढिय, सिय नो आवेढियपरिवेढिए) मे से જીવને એક એક પ્રદેશ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના અવિભાગ પરિમે છેદેની સાથે ક્યારેક આવેષ્ટિત પરિવેષ્ટિત હોય છે અને કયારેક આવેષ્ટિત પરિવષ્ઠિત नथी ५५५ डोतो. ( जइ आवेढिय परिवेढिए नियमा अणते हि) नेते मा. ષ્ટિત પરિવેષ્ટિત હોય તો નિયમથી જ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના અનંત અવિભાગી પરિચછેદેની સાથે આવેષ્ટિત પરિવેષ્ટિત રહ્યા કરે છે. ( एगमेगस्स ण भंते ! नेरइयस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिज्जरस कम्मरस केवइएहिं अविभागपलिच्छेएहि आवेढियपरिवेढिए ? ) 3 महन्त ! मे નારક જીવને એક એક જીવપ્રદેશ જ્ઞાનાવરણીય કર્મને કેટલા અવિભાગી परिच्छेहानी साथे मावत परिवष्टित २४ रह्यो डाय छे ? ( गोयमा ! नियमा अणतेहिं ) है गौतम ! मे मे ना२४ नो मे मे पहेश નિયમથી જ જ્ઞાનાવરણીય કર્મના અનંત અવિભાગી પરિચ્છેદેની સાથે આવે. श्री. भगवती सूत्र : ७
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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