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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श० ८ उ० १० ० २ आराधनास्वरूपनिरूपणम् " तत्फलस्य तत्रोक्तत्वात् उक्तं च ' अनुभवाउचरिते ' त्ति चारित्रे जघन्यचारित्राराधनायाम् अष्टभवायुर्भवतीति । , अथ जघन्यज्ञानाधाराधनामाश्रित्य गौतमः पृच्छति - ' जहन्नियं णं भंते ! नाणाराहणं अराहिता, कहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ, जाव अंत करेइ ? हे भदन्त ! जघन्याम् खलु ज्ञानाराधनामाराध्य कविभिः भवग्रहणैः जीवः सिध्यति यावत्बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति सर्वदुःखानामन्तं करोति ? भगवानाह - ' गोयमा ! अत्थेगइए, तच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जात्र अंतं करेइ, सत्तट्टभवग्गहणाई पुण नाइकमt ' हे गौतम ! अस्त्येककः कश्चिज्जीवः तृतीयेन भवग्रहणेन सिध्यति णाइक्कमह) ऐसा जो कहा गया है सो उसकी संगति नहीं बैठ सकेगी। क्यों कि चारित्राराधना का ही यह फल इस सूत्र द्वारा प्रकट किया गया है। कहा भी है- ( अट्ठभवाउचरिते ) चारित्र जघन्य चारित्रराधना में आठ भव होते हैं। अब जघन्य ज्ञानादिक आराधना को आश्रित करके गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं - ( जहन्नियं णं भंते ! नाणाराहणं आराहिता कहहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ जाव अंतं करेइ ) हे भदन्त ! जीव जघन्य ज्ञानाराधना को आराधित करके कितने भव के बाद सिद्ध होता है यावत् समस्त दुःखों का अंत करता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - ( गोयमा) हे गौतम! (अत्थेगइए तच्चेणं भवग्रहणं सिज्झह, जाव अंतं करेइ ) कोई जीव ऐसा होता है जो तृतीय भव में सिद्ध होता है यावत् समस्त दुःखों का अंत करता है । (सत्त भवग्गहणाईं पुण नाइक्कमइ ) सात आठ भवों का वह उल्लंघन नहीं ૨૮૭ છે સ સંગત લાગશે નહીં. કારણ કે ચારિત્રારાધનાનું જ તે ફળ આ સૂત્ર द्वारा प्रउट १२वामां मायुं छे. उधुं पशु छे है-" अट्ठभवाउचरिते " धन्य ચારિત્રારાધનામાં આઠ ભવ થાય છે. હવે જઘન્ય જ્ઞાનાદિકની આરાધનાને અનુલક્ષીને ગૌતમ સ્વામી મહાવીર असुने सेवा प्रश्न पूछे छे - ( जहन्नियं णं भंते ! नाणाराहण' आरादित्ता कईहिं भवग्गणेहि सिज्झइ जाव अंत करेइ ? ) हे लन्त ! धन्य ज्ञानाराधनानुं આરાધન કરીને જીવ કેટલા ભવ કરીને સિદ્ધ થાય છે, યુદ્ધ થાય છે, મુક્ત થાય છે અને સમસ્ત દુ:ખાના અંત કરે છે ? महावीर अलुनो उत्तर- ( गोयमा ! ) हे गौतम! ( अत्येगइए सच्चेण भवग्गणेण सिज्झइ, जाव अंत करेइ ) अब भेवो होय छे है ? ત્રીજા ભવમાં સિદ્ધ થાય છે, બુદ્ધ થાય છે, મુક્ત થાય છે, અને સમસ્ત दुःयोनो मत रे छे. ( सत्तभबग्गहणाई पुण नाइकमइ ) सात माह लवोनुं श्री भगवती सूत्र : ৩
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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