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________________ २०८ भगवतीस्त्रे गोमयराशीनां वा, अवकरराशीनां कचवरपुञ्जानां उच्चत्वेन ऊर्ध्वं चयनेन बन्धः समुत्पद्यते स उच्चयबन्धः 'जहणेणं अंतोमुहतं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं, सेतं उच्चयबंधे ' जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण संख्येयं कालं तिष्ठति स एष उच्चयवन्धः प्रज्ञप्तः । गौतमः पृच्छति' से किं तं समुच्चयबंचे ? ' हे भदन्त ! अथ कः कतिविधः स समुच्चयबन्धः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह - ' समुच्चयबंधे जं णं अगडतडाग - नई - दह - वावी - पुक्खरिणी - दीहियाणं, गुंजालियाणं, सराणं, सरपंतियाणं, सरसरपंतियाणं, बिलपतियाणं' हे गौतम! समुच्चयबन्धो यत् खलु अगड (अवट कूप) तडागनदी हद वापी - पुष्करिणी दीर्घिकाणां गुञ्जालिकानाम् गोलाकार पुष्करिणी - है, तुषों का जो ऊँचा ढेर लगा दिया जाता है, भुसा का जो ऊँचा ढेर लगा दिया जाता है, गोमय (गोबर) का जो ऊँचा ढेर लगा दिया जाता है, कूडा-कचड़ा का जो ऊचा ढेर लगा दिया जाता है, इस ढेर में जो उन पदार्थों का आपस में संबंधरूप बंध है वह उच्चय बंध है । यह उच्चयबंध जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट से संख्यात काल तक रहता है - इसके बाद वह नष्ट हो जाता है। अब गौतमस्वामी प्रभु से समुच्चयबंध के विषय में पूछते हैं - ( से किं तं समुच्चयबंधे ) हे भदन्त समुच्चयबंध कितने प्रकार का होता है अर्थात् समुच्चयबंध का क्या स्वरूप है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं( समुच्चयबंधे जं णं अगडतडाग नदी दह वायी, पुक्खरिणी, दीहियाणं गुंजालियाणं, सराणं, सरपंतियाणं, बिलपतियाणं ) हे गौतम! अगडकूप, तडाग-तालाब, नदी, द्रह-हद, वापी, पुष्करिणी, दीर्घिका, ના જે ઊંચા ઢગલા કરવામાં આવે છે, ગેાબર ( છાણુ ) ના જે ઊંચે ઢગલે કરવામાં આવે છે, કચરા પુંજાના જે ઊંચા ઢગલા કરવામાં આવે છે, તે ઢગલામાં રહેલા તે પદાર્થોના પરસ્પરના સંબધ રૂપ જે અંધ છે, તેને ઉચ્ચય અધ કહે છે. આ ઉચ્ચય મધ આછામાં એછે. એક અંતર્મુહૂત સુધી અને વધા રેમાં વધારે સખ્યાતકાળ સુધી રહે છે, ત્યારખાદ તે નષ્ટ થઈ જાય છે હવે ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને સમુચ્ચય બંધ વિષે એવા પ્રશ્ન પૂછે છે કે— ( से किं तं समुच्चय बधे ? ) हे लहन्त ! समुस्यय मंध ठेवु સ્વરૂપ છે? महावीर अलुनो उत्तर - ( समुच्चय बधे ज णं' अगड तडाग-नदी- वह वावी, पुत्रखरिणी, दीहियाणं, गुंजालियाणं, सराणं, सरपंतियाणं, सरबरपति aroi, faq'fari) 3 silah ! gai, ana, dd, ké (g8-23 ), 919, श्री भगवती सूत्र : ৩
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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