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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श० ८ उ० ९ सू०२ विनसाबन्धनिरूपणम् १७९ विष्ठति, स एष भाजनमत्ययिको बन्धः मरूपितः। गौतमः पृच्छति-' से कि तं परिणामपच्चइए ? ' हे भदन्त ! अथ किं स परिणामप्रत्ययिको नाम बन्धः ? भगवानाह-'परिणामपच्चइए जंणं अब्भाणं अब्भरुक्खाणं जहा तइयसए जाव अमोहाणं परिणामपच्चइए णं बंधे समुप्पज्जइ' हे गौतम ! परिणामप्रत्ययिको बन्धः-यत् खलु अभ्राणां भेघानाम् अभ्रक्षाणाम् अभ्रात्मकवृक्षाणाम् यथा तृतीय. शतके सप्तमोद्देशके प्रतिपादितानाम् यावत् अमोघानाम् , यावत्पदेन-वक्ष्यमाणपदानां संग्रहः-सन्ध्यानाम् , गन्धर्वनगराणाम् आकाशे व्यन्तरकृतनगराकारपरिणबनने में कारण उनका भाजन में भर कर रख देना है। अतः इस प्रकार का यह पिण्डीभूत होने रूप बंध भाजनप्रत्ययिक कहा गया है। इस बंध का जघन्य काल अन्तर्मुहर्त का है और उत्कृष्ट काल संख्यातकाल रूप है। अर्थात् कम से कम यह बंध एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और अधिक से अधिक संख्यातकाल तक रहता है। ___ अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(से किं तं परिणामपच्चइए ) हे भदन्त ! परिणामप्रत्ययिक बंध क्या है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा) हे गौतम! परिणामप्रत्ययिक बंध वह है (जं णं अब्भाणं अम्भरुक्खाणं जहा ततियसए जाव अमोहाणं परिणामपच्चइए णं बंधे समुप्पज्जइ) जो तृतीयशतक के सप्तम उद्देशक में प्रतिपादित अभ्रों (बादलों ) की, अभ्रवृक्ष आदिकों की रूपान्तर प्राप्तिरूप होता है। यहां (यावत् ) शब्द से इस तृतीयशतक के सप्तम उद्देशक में कहे गये पाठ રૂપ બની જવાનું કારણ તે ભાજનમાં (પાત્રમાં) તેમને ભરી રાખ્યા તે છે. તેથી આ પ્રકારના પિંડભૂત બની જવા રૂપ બંધને ભાજપ્રત્યયિક કહે છે. ( जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेण संखेज्जकालं से त्त भायणपच्चइए ) ॥ ५'धन। ઓછામાં ઓછો કાળ અત્તમુહૂતને અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાતકાળને હેય છે. એટલે કે આ બંધ ઓછામાં ઓછો એક અન્તમુહૂર્ત સુધી રહે છે અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાતકાળ સુધી રહે છે. गौतम स्वामी प्रश्न-(से कि त परिणामपञ्चहए ? ) 3 महन्त ! પરિણામ પ્રત્યયિક બંધ કે હેય છે? भावी२ प्रभुन। उत्तर-(गोयमा!) 3 गौतम ! परिणाम प्रत्यय 4 ते छे २ (जणं अब्भाणं अन्भरुक्खाणं जहा तइयसए जाव अमोहाणं परिणामपच्चइए णं बंधे समुप्पज्जइ) alon Adsना सातमi देशमा प्रतिપાદિત અબ્રોની (વાદળોની) અને અન્નવૃક્ષ આદિકની રૂપાંતર પ્રાસિરૂપ હોય છે. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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