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________________ भगवतीसूर्य एवं लाभाभावात् , तत्परिषहणं च चारित्रमोहनीयक्षयोपशमरूपम् । अथ बन्धस्थानान्याश्रित्य परीषहान् प्ररूपयितुमाह-'सत्तविहबंधगस्स णं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! सप्तविधबन्धकस्य आयुर्वर्जशेषसप्तपूर्वोक्त. कर्मवन्धकस्य खलु जीवस्य कति परीषहाः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह- गोयमा ! बावीसं परीसहा पणत्ता' हे गौतम ! सप्तविधकर्मबन्धकस्य द्वाविंशतिः परीपहाः पूर्वोक्ताः प्रज्ञप्ताः किन्तु 'वीसं पुण वेएइ ' विंशतिं पुनः परीपहान् वेदयति, तदाह-'जं समयं सीयपरीसहं वेएइ णो तं समयं उसिणपरिसहं वेएइ' 'मुत्रे-'जं समयं' इत्यत्र द्वितीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात् । एवमग्रेऽपि बोध्यम् , ततः यस्मिन् समये इत्यर्थः शीतपरीपह वेदयति, नो खलु तस्मिन् समये उष्णपरीषह का सहना वह चारित्रमोहनीय के क्षयोयशमरूप होता है। अब सूत्रकार बंधस्थानों को आश्रित करके परीषहों की प्ररूपणा करते हैंइस में गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा हैं-( सत्तविहबंधगस्स णं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता) हे भदन्त ! आयुकर्म को छोड़कर शेष सातकर्मों का बन्ध करने वाले जीवके कितने परीषह कहे गये हैं ? उत्तरमें प्रभु कहते हैं (गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता) हे गौतम! ऐसे जीवके २२ परीषह कहे गये हैं । किन्तु (वीसं पुण वेएइ) वेदन उनके २० का ही होता है क्यों कि (जं समयं सीयपरीसहं वेएइ ) जिस समय वह शीत परीषह का वेदन करता है (जो तं समयं उसिणपरिसहं वेएइ) उस समय वह उष्ण परीषह का वेदन नहीं करता है। क्यों कि शीत और उष्ण इनका परस्पर में अत्यन्त विरोध है-इस कारण युगपत् इन હવે સૂત્રકાર બંધસ્થાનની અપેક્ષાએ પરીષહોની પ્રરૂપણ કરે છે આ વિષયને અનુલક્ષીને ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે – ( सत्तविहबंधगस्स णं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता ? ) 3 महन्त ! आयुभ સિવાયના સાત કર્મોને બંધ કરનાર જીવના કેટલા પરીષહ કહ્યા છે? તેને उत्त२ मापता महावीर प्रभु ४ छ । (गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता ?) है गौतम । मे। 4॥ २२ मावीश परीष ४ा छ. ५२'तु (वीसं पुण वेएइ) ते २० वीसन २४ वहन मे साथे ४ ४२ छ. ४।२५ है (जं समय सीयपरीसह वेएइ) २ समये ते त५५७नु वेहन ४३ छे, (णो त समय उसिणपरीसहं वेएइ ) २ समये ते परीषनु वेहन ४२तो नथी, २६ है શીત અને ઉષ્ણુતા વચ્ચે પરસ્પર અત્યન્ત વિરોધ હોય છે. તેથી તે બન્નેનું શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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