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________________ ११२ भगवतीस्त्र मोहनीयक्षयोपशमादेबोध्यम् , ज्ञानपरीषहस्तु मत्यादिज्ञानावरणे समवतरति, गौतमः पृच्छति-' वेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे कइ परीसहा समोयरंति ? ' हे भदन्त ! वेदनीये खलु कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति ? भगवानाह-'गोयमा! एक्कारस परीसहा समोयरंति ' हे गौतम ! वेदनीये कर्मणि एकादश परीषहाः समवतरन्ति, तानेव एकादश परीषहानाह-' तं जहा-" पंचेव आणुपुदि चरिया सेज्जा वहे यरोगे य । तणफासजल्लमेव य,एक्कारसवेयणिज्जमि"॥५९॥ तद्यथा-पञ्च एव आनुपूर्वी , शय्या, वधश्च रोगश्च, तृणस्पर्शः, मलमेव एकादश वेदनीये, तत्र कर देना चाहिये-सो यह कथन चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम आदि की अपेक्षा से जानना चाहिये । क्यों कि सहन करना आदि रूप जो आचरण होता है वह चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशमादि से होता है। ज्ञानपरीषह मत्यादिज्ञानावरण में समाविष्ट होता है । अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(वेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे कइपरीसहा समोयांति) हे भदन्त ! वेदनीय कर्म में कितने परीषहों का समावेश होता है ? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं-(गोयमा) हे गौतम ! (एक्कारसपरीसहा समोयरंति) वेदनीय कर्म में ११ ग्यारहपरीषहों का समावेश होता है-अर्थात् वेदनीय कर्म के उद्य में ११ परीषह होते हैं -(तं जहा) जो इस प्रकार से हैं-(पंचेव आणुपुची, चरिया, सेजा, वहे य, रोगे य तण फासजल्लमेव य एक्कारसवेयणिज्जंमि ) पांच आनुपूर्वीक्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण और दंशमशक ये पांच परीषह, तथा चर्या, शय्या, वध, रोग तृष्णस्पर्श, एवं मल ये ११ परीषह वेदनीय कर्म में કરે જોઈએ ” આ કથન ચારિત્રમોહનીયના ક્ષયે પશમ આદિની અપેક્ષાએ થયું છે એમ સમજવું. કારણ કે સહન કરવા આદિ રૂપ જે આચરણ થાય છે તે ચારિત્ર મોહનીય કર્મના ક્ષપશમ આદિથી થાય છે. જ્ઞાનપરીષહને સમાવેશ મત્યાદિ જ્ઞાનાવરણમાં થાય છે. गौतमस्वाभानी प्रश्न-" वेयणिज्जेणं भंते ! कम्मे कइ परीसहा समोय. रेति ?" महन्त ! वहनीयममा ८॥ पशषडानी समावेश थाय छ ? महावी२ प्रभुनी उत्तर- 'गोयमा! गौतम! " एक्कारसपरीसहा मोयति" वहनीय भाभा ११ परीषडानी समावेश याय छ-भेटले वहनीय भनाध्यमा ११ पशषडी डाय छ “ त जहा" ते ११ परीषडी नीचे प्रमाण छ-" पंचेव आणुपुव्वी, चरिया, सेज्जा, वहे य, रोगे य, तणफासजल्लमेव य एक्कारसवेयणिज्जंमि” ५i पांय परीषडी मेटले है क्षुधा, तृषा, शीत, B] भने शमश तथा यर्या, शय्या, १५, २, तृशुः५५ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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