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प्रमेयचन्द्रिका टी० ० ८ ० ८ सू० ५ कर्मप्रकृति-परीषहवर्णनम् १११ आन्तरायिके। गौतमः पृच्छति-नाणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मे कइ परीसहा समोयरंति ?' हे भदन्त ! ज्ञानावरणीये खलु कर्मणि कति परीपहाः समवतरन्ति ? भगवानाह-'गोयमा ! दो परीसहा समोयरति ' हे गौतम ! ज्ञानावरणीये कर्मणि द्वौ परीषहौ समवतरतः, ' तं जहा-पण्णापरीसहे, नाणपरीसहे य' तद्यथा-प्रज्ञापरीपहः, ज्ञानपरीपहश्च, तत्र प्रज्ञापरीषहो ज्ञानावरणे मतिज्ञानावरणरूपे समवतरति तस्याः समवतारश्च प्रज्ञाया अभावमाश्रित्य बोध्यः तदभावस्य ज्ञानावरणोदयसम्भवात् , यच्च तदभावे दैन्यपरिवर्जनं तत्सद्भावे च मानवर्जनमित्युक्तम् , तच्चारित्रकर्म में वेदनीयकर्म में, मोहनीय कर्म में और अन्तरायिक-अन्तराय कर्म में ये २२ परीषह समाविष्ट होते हैं। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते है-(नाणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कह परीसहा समोय. रंति) हे भदन्त ! ज्ञानावरणीय कर्म में कितने परीषह समाविष्ट होते हैं अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म के उदय में कितने परीषह होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! 'दो परीसहा समोयरंति' ज्ञानावरणीय कर्म में दो परीषह समाविष्ट होते हैं-'तं जहा' जैसे-(पण्णापरीसहे नाणपरीसहे) एक प्रज्ञा परीषह और दूसरा ज्ञान परीषह प्रज्ञापरीषह मतिज्ञानावरणरूप ज्ञानावरण में समाविष्ट होता है। इसका समावेश प्रज्ञा के अभाव को आश्रित करके जानना चाहिये। क्यों कि ज्ञानावरण कर्म के उदय से प्रज्ञा का अभाव संभवित होता है। तथा जो ऐसा कहा गया है कि प्रज्ञा के अभाव में दीनता का परिवर्जन कर देना चाहिये और उसके सद्भाव में मान का परिवर्जन भभा (२) वेनीयममा (3) मानीय भमा भने (४) मतय भभा તે ૨૨ બાવીશ પરીષહને સમાવેશ થાય છે.
गौतमस्वाभाना प्रश्न-" नाणावरणिज्जेणं भंते ! कम्मे कइ परीसहा समोयति ?" महन्त ! ज्ञानावरणीय प्रभा । परीषडान समावेश याय છે? એટલે કે જ્ઞાનવરણીય કર્મના ઉદયમાં કેટલા પરીષહે હોય છે?
महावीर प्रभुने। उत्त२-" दो परीसहा समोयरंति-त जहा" गौतम ! ज्ञानावरणीय भमां नीचे प्रमाणे में परीषडाने समावेश छ-"पण्णापरीसहे. नाणपरीसहे" (१) प्रज्ञापरीष भने (२) ज्ञानपरीष प्रज्ञापरीष भतिज्ञानाવરણ૩૫ જ્ઞાનાવરણુમાં સમાવૃષ્ટ થાય છે. તેનો સમાવેશ પ્રજ્ઞાના અભાવને અનુલક્ષી સમજવો જોઈએ. કારણ કે જ્ઞાનાવરણ કર્મના ઉદયથી પ્રજ્ઞાને અભાવ સંભવિત હોય છે તથા એવું જે કહેવામાં આવ્યું છે કે “ પ્રજ્ઞાના અભાવમાં દીનતાનો ત્યાગ કરવો જોઈએ અને તેના સદુભાવમાં માનનો ત્યાગ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭