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________________ म. टी. श. ८ उ. ६ सू. ३ निर्ग्रथाराधकतानिरूपणम् ७०३ E आराधकः ? विराधकोत्रा भवेत् ? भगवानह- ' गोयमा ! आराहए, नो विराहए' हे गौतम! स निग्रन्थः स्थविरपदेशं प्राप्तश्चेत्तदा स्थविराणां मूकश्वेऽपि आराधक एव भवेत्, नो विराधक इति भावः, 'सेय संपट्टिए संपत्ते अपणाय' हे भदन्त ! सच निर्ग्रन्थः संप्रस्थितः प्रचलितः संप्राप्तः स्थविर समीपं गतच, किन्तु आत्मानाच स्वयमेव चेत् अमुखः मूकः स्यात्तदा किं स आराधकः ? किंवा विराधको भवेदिति ? प्रश्नः, हे गौतम! संप्राप्तः स स्वयमेव कोऽपि यदि भवेत्तदापि स आराधक एवं नो विराधक इति ' एवं संपत्तेण वि आलावगा भाणियन्त्राः यथा असंप्राप्तेन भाणिताः तत्र छौ श्रमण आराधक है या विराधक है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं' गोयमा ' हे गौतम ! आराहए, नो विराहए ' वह निर्ग्रन्थ श्रमण आराधक ही है, विधारक नहीं है । अब गौतम स्वामी प्रभुसे ऐसा पूछते हैं - 'सेय संपठिए संपत्ते अप्पणाय अमुहे सिया से णं भंते ! किं आराहए, विराहए' वह निर्ग्रन्थ श्रमण वहांसे तो चल देता है और जहाँ पर वे स्थविर हैं-वहां पर आभी जाता है परन्तु वह आतेही मूक हो जाता है तो ऐसी हालत में वह अकृत्य स्थान के प्रतिसेवन करनेकी अपनी बातको उनसे प्रकट नहीं कर सकने के कारण आराधक माना गया है कि विराधक माना गया है ! इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं- 'गोयमा' आराहए नो विराहए हे गौतम! वहां आनेपर भी यदि वह अपने आप मूक होता है तो वह आराधकही माना गया है विराधक नहीं । 'एवं संपत्तेण वि चतारि आलावगा भाणियव्वा' जहेव अस पत्तेर्ण ' जिस तरहसे यहां पर असंप्राप्तको लेकर निर्ग्रन्थ • विराहए ? ' ने निगथने माराध भानवे हे विराध ? 'गोयमा ! आराहए, ना विराहए ' हे गौतम! तेने आराध मानवा लेठो विराध नहीं. , गौतम स्वामीने। प्रश्न :- से य संपट्टिए संपत्ते अपणाय अमुडे सिया-से णं भंते ! किं आहए, विराहए ?' डे लहन्त । आयोयना ४२वा निमित्ते त्यांथा ઉપડેલા તે શ્રમણુ સ્થવિરાની પાસે આવી પણ જાય છે, પણ આવતાની સાથેજ તે પોતે મૂક થઇ જાય છે. એવી પરિસ્થિતિમાં તે પેાતાના દ્વારા થયેલા અકૃત્ય પ્રતિસેવનની વાત તેમને કહી શકતો નથી. તો તેને આરાધક માનવા કે વિરાધક ? महावीर असुन उत्तर :- 'गोयमा ! आराहए, नो विराहए ' त्यां याव्या ખાદ્ય મૂક ખની જવાથી આલેચના નહી કરી શકનાર નિમથને આરાધક જ કહી શકાય, विराय नहीं. ' एवं सपत्तेण वि चत्तारि आलावगा भाणियन्त्रा जहेव असंपत्तेणं ' શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૬
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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