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________________ २७० भगवतीसूत्रे 'एवम् उरगजात्याशीविषस्यापि, नवरम् जम्बूद्वीपप्रमाणमात्रां तनुं विषेण विषपरिणतां, शेषं तदेव यावत्-करिष्यन्ति वा ३। मनुष्यजात्याशीविषस्यापि एवमेव, नवरं समयक्षेत्रप्रमाणमात्रां तनू विषेण विषपरिगतां, शेषं तदेव, यावत् करिष्यन्ति वा । यदि कर्माशीविषः किं नैरयिककर्माशीविषः तिर्यग्योनिकहो सकता है। बाकी समस्त कथन पहिलेके जैसा ही जानना चाहिये । यावत् संपाप्तिद्वारा उसके विषने ऐसा आजतक न किया है, न वह ऐसा करता है और भविष्यमें भी वह ऐसा नहीं करेगा। यह तो केवल उसके प्रभावका ही वर्णन किया गया है। (एवं उरग जाइ आसीविसस्सवि-नवरं जंबुद्दीवप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं) इसी तरहसे उरगजाति आशीविषके विषके विषयमें भी जानना चाहिये. परन्तु इस विषका प्रभाव इतना बडा जानना चाहिये कि वह अपने प्रभाबसे जंबूद्वीप प्रमाण शरीरको व्याप्त कर सकता है। उसे नष्ट कर सकता है। बाकी का सब कथन पहिले जैसा ही जानना चाहिये। यावत्संप्राप्ति द्वारा उस विषने आज तक ऐसा न किया है, न वह ऐसा करता है और न भविष्यमें वह ऐसा करेगा ही. यह तो उस के सामर्थ का वर्णन मात्र है। (मणुस्स जाइ आसोविसस्स वि एवं चेव, नवरं समयखेत्तप्पमाणमेत बोदि विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव करिस्संति वा ४) इसी तरहसे मनुष्यजाति आशीविषके विषके संबंधों भी जानना चाहिये । परन्तु यहाँ पर विशेषता ऐसी है कि मनुष्यકથન પ્રમાણે જેવું જ સમજી લેવું. યાવત સંપ્રાપ્તિદ્વારા તેના રે આજ સુધી એવું કર્યું નથી. એવું કરતા નથી અને ભવિષ્યમાં એવું કરશે પણ નહીં. આ ફકત તેમના सामयन वन ४२वामा मावेन छे. 'एवं उरगजाइ आसीविसस्स वि-नवरं जंबहीवपमाणयेतं बोदिं विसेणं । मावी रीत ती. माशीविषना रना વિષયમાં પણ જાણવું જોઈએ. પરંતુ આ ઝેરને પ્રભાવ એટલે મેટ જાણવો જોઈએ કે તે પિતાના પ્રભાવથી જંબૂદ્વીપ પ્રમાણ શરીરમાં ફેલાય શકે છે અને તેને નાશ કરી શકે છે. બાકીનું સઘળું કથન પહેલાંના જેવું–વીંછીના કથન પ્રમાણેનું જ જાણવું જોઈએથાવત - સંપત્તિદ્વારા આ ઝેર આજસુધી આવું કર્યું નથી, આવું કરતા નથી અને भविष्यमा त ४२ नही. माता ५४त तमना सामथ्य न १ न छे. 'मणुस्स जाइआसीविसस्स वि एवं चेव नवरं समयप्पमाणमेत बोंदि विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव करिस्संति वा ४१ मे शत मनुष्य जतिना माशाविषना ઝેરના સંબંધમાં પણ જાણી લેવું, પરંતુ અહીં વિશેષતા એ છે કે મનુષ્ય જાતિ श्री. भगवती सूत्र :
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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