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________________ १३६ भगवती परिणता अपि, ' एवं जहा पन्नत्रणापए तहेव निरवसेस जाव' एवं यथा प्रज्ञपनायाः प्रथमे पदे विसापरिणतपुद्गलभेदाः प्रतिपादितास्तथैवाऽत्रापि निरवशेषं वक्तव्यम्, यावत् - ये पुद्गला रसपरिणताः, ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताःतद्यथा - तिक्तरसपरिणता अपि, कटुरसपरिणता अपि कषायरसपरिणता अपि, आम्लरसपरिणता अपि, मधुररसपरिणता अपि भवन्ति । ये पुद्गलाः स्पर्श - परिणतास्ते अष्टविधाः प्रज्ञप्ताः- तद्यथा - कर्कश स्पर्शपरिणताः, मृदुस्पर्शपरिणताः, गुरुस्पर्शपरिणताः, लघुस्पर्श परिणताः, शीतस्पर्श परिणताः, उष्णस्पर्श परिणताः स्निग्धस्पर्श परिणताः, रूक्षस्पर्श परिणताश्च भवन्ति । 'जे संठाणओ आययठाणपरिणया ते वण्णओ कालवनपरिणया वि, जाव लुक्खफासपरिणया वि' ये पुद्गलाः संस्थानतः आयतसंस्थानपरिणताः प्रज्ञप्तास्ते वर्णतः कालवर्णपरिदुरभिगंधपरिणत भी 'एवं जहा पन्नवणापए तहेव निरवसेसं जाव' जिस प्रकार से प्रज्ञापनाके प्रथमपद में विस्रसापरिणतपुद्गलोंके भेदकहे गये हैं उसी तरह से यहाँ परभी संपूर्ण कथन जानना चाहिये यावत् जो पुद्गल रसपरिणत हैं वे पांच प्रकारके हैं इनमें तिक्तरसपरिणत भी हैं, कटुरस परिणत भी हैं, कषायरसपरिणत भी हैं, अम्लरस परिणत भी हैं मधुररस परिणत भी हैं। जो पुद्गल स्पर्शपरिणत हैं वे आठ प्रकारके हैं जैसे कर्कशस्पर्श परिणत, मृदुस्पर्श परिणत, गुरुस्पर्शपरिणत, लघुस्पर्श परिणत, शीतस्पर्श परिणत, उष्णस्पर्श परिणत स्त्रिग्धस्पर्श परिणत, रूक्षस्पर्श परिणत, 'जे संठाणओ आययसंठाणपरिणया ते वण्णओ कालवन्नपरिणया वि जाव लुक्खफासपरिणया वि' (१) सुगंधयरित भने (२) हुर्ग धपरिशुत. ' एवं जहा पुन्नवणापए तहेव निरवसेसं जाव' ने प्रभारी प्रज्ञायनाना प्रथम यहां विस्वसायरिशुत पुछ्गमोना नेह કહેવામાં આવ્યાં છે, એ જ પ્રમાણે અહીં પૂર્ણ સમસ્ત કથન સમજવું. જેમકે જૈ પુદ્દગલાને રસપરિણત પુદ્ગલે કહ્યાં છે તેમના પાંચ પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે– (૧) તિકત रसपरिशुत, (२) ४टुरसपरिणत, (3) उपाय (तुरा) रसपरिणत, (४) अभ्स (पाटा) રસરિત અને (૫) મધુરરસરિષ્કૃત. સ્પર્ધા પરિણત પુદ્ગલાના આઠ પ્રકાશ નીચે प्रमाणे छे (१) ४४ शस्पर्श परिष्कृत, (२) भृहुस्पर्श' परियुत, (3) गुरुस्पर्श' परिश्रुत, (४) लघुस्यर्श परियुत, (4) शीतस्पर्श परिशुत, (६) उष्णस्पर्श परिश्रुत, (७) स्निग्धस्पर्श परिष्कृत मने (८) ३क्षस्पर्श' परित. 'जे संठाणओ आययस ठाणपरिणया ते बण्णओ कालवण परिणया वि जाव लक्खफासपरिणया वि' ने गले શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૬
SR No.006320
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 06 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages823
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size46 MB
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