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________________ - अमेयचन्द्रिका टीका श.७ उ.९५. १ प्रमत्तसाधुनिरूपणम् करोति ? किंवा 'तस्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ ' तत्रगतान वैक्रियलब्ध्या विकुर्वणां कृत्वा पत्र गमिष्यति तत्रस्थितान् पुद्गलान् पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति ? किंवा 'अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ ?' अन्यत्र गतान उक्तस्थानद्वयादन्यत्र व्यवस्थितान् पुद्गलान् पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति ? भगवानाह-'गोयमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउबई' हे गौतम ! वै. क्रियलब्धिमान् प्रमत्तोऽनगारः इहगतान् एतल्लोकस्थितानेव पुद्गलान् पर्यादाय विकुर्वति, ‘णो तत्थगए पोग्गले परिवाइत्ता विउमई' नो तत्रगतान् पुद्गलान् पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति, ‘णो अण्णत्यगए पोग्गले परियाइत्ता विउबई' नो वा अन्यत्रगतान् उक्तस्थानद्वयातिरिक्तस्थानस्थितान् पुद्गलान पर्यादाय विकुर्वति, ‘एवं एगवण्णं अणेगरुवं चउभंगो' एवम् पूर्वोक्तैकवर्णैकग्रहण करके विकुर्वणा करता है ? या 'अण्णस्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वई' इन दोनों स्थानोंसे भिन्न स्थानमें रहे हुए पुद्गलोंको ग्रहण करके वह विकुर्वणा करता है ? इसके उत्तरमें प्रभु कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम ! 'इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ' वैक्रियवन्धिवाला प्रमत्त अनगार इस लोकस्थित ही पुद्गलोंको ग्रहण करके विकुर्वणा करता है । 'णो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउ. व्वई' तत्रगत पुद्गलोंको विकुर्वणा करके जहां पर उसे जाना है वहांके स्थानके पुद्गलोंको ग्रहण करके वह विकुर्वणा नहीं करता हैं और' णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वइ' न अन्यत्रगत उक्तस्थानद्वयसे अतिरिक्त स्थानमें स्थित हुए पुद्गलोंको ग्रहण करके वह विकुर्वणा करता है । 'एवं एगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो' पूर्वाक्त पार्नु हाय छ, क्षेत्रमा पुगतान अप शन [4ga'ए। रे ? 3 'अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वड ?? ते भन्ने स्थानाथी मिन्न स्थानमा २ ५६साने ગ્રહણ કરીને વિમુર્વણું કરે છે? तो उत्तर मापता महावीर प्रभु छ - 'गोयमा!" गौतम ! 'इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वई' वैयि auqाणे प्रमत्त मा२ मा डोमा २i yाने प्रय राने ४ विजु'। ४२ छ. 'णो तत्थगए पोग्गले परियाडत्ता विउवह तत्रगत गाने :(विभु ४शन तेन न्यो पार्नु डाय ते २थानना हासाने ) अए। शन त विजुए। ४२ता नथी, अने 'णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउबई' अन्यत्रगत (उपर्युत -स्थान सिवायना સ્થાનના) પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને પણ તે પ્રમત્ત અણગાર વિક્ર્વણ કરતા નથી. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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