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________________ ६७२ भगवती सूत्रे पर्यादाय = गृहीत्वा एकवर्णम् एकरूपं त्रिकुत्रितुं प्रभुः समर्थः किम् ? भगवानाह - 'हंता, पभू ' हे गौतम! हन्त, सत्यम् वैक्रियलब्धिमान् प्रमत्तोऽनगारः बाह्यान् पुद्गलान पर्यादाय एकवर्णम् एकरूपम् विकुर्वितुं समर्थः । गौतमः पृच्छति से भंते ! किं इहगए पोगले परियाहत्ता विजब्बर ?' हे भदन्त ! स खलु वैक्रियलब्धिमान प्रमत्तोऽनगारः किम् इहगतान प्रष्टुः गौतमादेरपेक्षया इह शब्दवाच्यो मनुष्यलोकः तत्रगतान् स्वपाइव स्थितान् इत्यर्थः पुद्गलान् पर्यादाय गृहीत्वा विकुर्वति ? विकुर्वणां वाले एकरूपकी यावत् एकवर्णवाले अनेकरूपोंकी, अनेक वर्णवाले एकरूपकी, अनेकवर्णवाले अनेकरूपोंकी विकुर्वणा द्वारा निष्पत्ति करनेके लिये समर्थ है क्या ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते है 'हंता, गोयमा ! पभू' हां गौतम ! ऐसा सत्य है वैक्रियलब्धिवाला अनगार प्रमत्तसाधु बाह्यपुद्गलोंको ग्रहण करके एक वर्णवाले एकरूपकी, एकवर्णवाले अनेकरूपोंकी, अनेकवर्णवाले एकरूपकी तथा अनेकवर्णो वाले अनेकरूपोंकी विकुर्वणा द्वारा निष्पत्ति करनेके लिये समर्थ है । अब गौतमस्वामी प्रभुसे ऐसा पूछते हैं कि 'से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाहत्ता विजब्बर ?" हे भदन्त ! वह वैक्रियलब्धिवाला प्रमत्त अनगार इहगत पूछनेवाले गौतम आदिकी अपेक्षा से अपने पास में रहे हुए पुद्गलोंको ग्रहण करके विकुर्वणा करता है क्या ? या 'तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउव्वह' वैक्रियलब्धि से विकुर्वणा करके जहां पर वह जावेगा वहां पर रहे हुए पुद्गलोंको એક વણુ વાળા અનેક રૂપાની, અનેક વર્ણવાળા એક રૂપની અને અનેક વણુ વાળા અનેક રૂપાની, વિકુČણા દ્વારા રચના કરવાને શું સમથ' હાય છે? भडावीर अलुन। उत्तर- हंता, गोयमा ! पभू डा गौतम! वैडिय] सन्धिવાળા અસવ્રત અણુગાર (પ્રમત્ત સાધુ) માહ્ય પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને એક વર્ણવાળા એક રૂપની, એક વવાળાં અનેક રૂપની, અનેક વણુવાળા એક રૂપની અને અનેક વસ્તુવાળાં અનેક રૂપાની વિષુ'! દ્વારા રચના કરવાને સમર્થ હોય છે. गौतम स्वामीने। त्रीले प्रश्न- 'से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विन्बइ ?” हे लहन्त ! शु ते अभत्त गुगार सही रहेसां-यूछनार गौतम माहिनी अपेक्षा तेभनी पासे रडेलां-युगसेाने अणु उरीने विदुर्वा रे छे ? ' तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता बिउव्वइ ?' वेडियसम्धि द्वारा विदुर्वाणा उरीने नयां तेने શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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