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प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ७ उ. ७ . २ कामभोगनिरूपणम्
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केनार्थेन एवमुच्यते - जीवाः कामिनोऽपि भवन्ति, भोगिनोऽपि भवन्ति ? भगवान् हेतुं कथयति- 'गोयमा ! सोइंदियचविंख दियाई पडुच्च कामी, घाणिदिय - जिभिदिय - फासिंदियाइ पच्च भोगी' हे गौतम ! जीवाः श्रोत्रेन्द्रियचक्षुरिन्द्रिये प्रतीत्य = अपेक्ष्य कामिनो भवन्ति श्रोत्रचक्षुरिन्द्रिययो: शब्दरूपग्राहकतया तयोरपेक्षया जीवानां कामवश्वसंभवात् अथ च घ्राणेन्द्रिय- जिहूवेन्द्रिय- स्पर्शेन्द्रियाणि प्रतीत्य अपेक्ष्य जीवाः भोगिनो भवन्ति तेषामिन्द्रियाणां गन्ध-रस-स्पर्शात्मकभोगग्राहकत्वात् तदपेक्षया जीवानां भोगवस्त्रसंभवात् । तदुपसंहरति- 'से तेगट्टेणं गोयमा ! जाव-भोगी वि' हे गौतम! तत् तेनावि' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारणसे कहते हैं कि जोब कामी भी होते हैं और भोगवाले भी होते हैं ? इसमें हेतुका प्रदर्शन करते हुए प्रभु उनसे कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम! सोइंदियचक्खि दियाई पडुच्च कामी, घाणिदिय जिभिदियफासिंदियाई पडुच भोगी' श्रोत्रेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षासे तो जीव कामो होते हैं और घ्राणेन्द्रिय, जिह्वाइन्द्रिय एवं स्पर्शन इन्द्रियकी अपेक्षासे जीव भोगी होते हैं । क्योंकि श्रोत्रइन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय शब्द और रूप के ग्राहक होते हैं अतः इनकी अपेक्षासे जीवों में कामवत्ता तथा गंध रस और स्पर्श इनरूप भोगों को ग्रहण करने वाली जिह्वा रसना और स्पर्शन इन्द्रियाँ होती हैं अतः इनकी अपेक्षासे उनमें भोगवत्ता सधजाती है 'से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव वि, भोगी वि, !' हे लहन्त माय शो आये मेवं छ ! वो अभी पागु હાય છે અને ભાગી પણ હાય છે ?
तेनुं समाधान करतां महावीर अलु आहे हे ' गोयमा !" हे गौतम ! सोइंदियचक्खिदियाई पडच कामी, वार्णिदिय, जिभिदिय, फासिंदियाई पडुच्च भोगी 'मो श्रोत्रेन्द्रिय मने यक्षुरिन्द्रियनी मेपेक्षा अभी होय है, અને ઘ્રાણેન્દ્રિય, જિાઇન્દ્રિય અને સ્પર્શેન્દ્રિયની અપેક્ષાએ ભાગી હાય છે શબ્દને શ્રોત્રેન્દ્રિય ગ્રહણ કરે છે અને રૂપને નેત્રન્દ્રિય ગ્રહણ કરે છે, તે કારણે તેઓ કામી છે. તથા ગંધ, રસ અને સ્પરૂપ ભાગેાના ઉપભેગ કરાવનારી ઘ્રાણેન્દ્રિય, જિહવાઇન્દ્રિય અને સ્પર્શેન્દ્રિયના પણ તેમનામાં સદ્ભાવ હાય છે, તે ઇન્દ્રિયાને લીધે તેમનામાં लोगवत्ता ( लोणी अवस्था ) पशु सिद्ध थाय छे से तेणट्टेणं गोयमा ! जाव भोगी त्रि' हे गौतम !! अर में मेवं मधु छे ! लवो अभी पशु होय छ भने ભાગી પણ હાય છે.
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : પ