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________________ ५८८ भगवतीस्त्रे खलु यावत् पूर्वोक्तस्य अनगारस्य ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते नो सांपरायिकी क्रिया क्रियते ? भगवानाह-'गोयमा ! जस्स णं कोह-माण माया-लोभा वोच्छि ना भवंति' हे गौतम ! यस्य खलु अनगारस्य क्रोध-मान-माया-लोभा व्युच्छिन्ना विशेषेण उच्छिन्ना विनष्टा भवन्ति, 'तस्स णं इरियावहिया किरिया कन्जइ' तस्य खलु क्रोधमानमायालोभरहितस्य अनगारस्य ऐपिथिकी क्रिया क्रियते नो सांपरायिकी क्रिया क्रियते 'तहेव जाव उस्मुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कन्जइ' तथैव यावत्-यस्य खलु अनगारस्य क्रोध-मान-मायालोभा अव्युच्छिन्ना भवन्ति तस्य खलु उत्सूत्रं सूत्रमर्यादातिक्रमेण रीयतो-गच्छतः साधोः सांपरायिकी क्रिया क्रियते नों ऐपिथिकी क्रिया भवतीत्याशयः। तथा च यावत्करणात् यथासूत्र रीयतो गच्छतोऽनगारस्य ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते, कारणसे कहते हैं कि संवरयुक्त अनगार के यावत् सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है ? ऐयापथिकी क्रिया होती है । इसके समाधान निमित्त प्रभु उनसे कहते हैं कि 'गोयमा ! जस्स णं कोह-माण माया-लोभ वोच्लिन्ना भवंति' हे गौतम ! जिस अनगार के क्रोध, मान, माया, और लोभ ये सब विशेषरूप से उच्छिन्न (नष्ट) हो जाते हैं 'तरस णं इरियावहिया किरियो कन्जइ' उस अनगारके ऐफ पथिकी क्रिया होती है। सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है। 'तहेव जाव उस्मुत्तं रीयमाणस्स सांपराइया किरिया कजइ' तथा जिस अनगार के क्रोध, मान, माया और लोभ ये विनष्ट नहीं हुए हैं ऐसे उस सूत्रकी मर्यादाके अतिक्रम करके चलने वाले साधु के सांपरायिकी क्रिया होती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती है। तथा च यहां यावत् पदके प्रयोगसे यह फलित हुआ है कि जो साधु सूत्रके अनुહે ભદન્ત ! આપ શા કારણે એવું કહે છે કે તે સંવરયુકત અણગાર યંપથિકી ક્રિયા કરે છે, સાંપરાયિકી ક્રિયા કરતો નથી ? આ પ્રશ્નનું સમાધાન કરતા મહાવીર પ્રભુ ४ छ-'गोयमा ! जस्स णं कोह, माण, माया, लोभा वोच्छिन्ना भवंति' હે ગૌતમ ! જે અણગારના ક્રોધ, માન, માયા અને લેભને વિશેષરૂપે નાશ થઈ ગયે डाय छ, 'तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जड ते म॥२ मोर्यापथि: डिया ४२तेउसय छ, ते सां५२(4की जिया ४२ते। नथी. 'तहेब जाव उस्मुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जई' तथामारना अध, भान, भाय। अन बोस નાશ થયા હતા નથી, એ સૂત્રસિદ્ધાંતની મર્યાદાને ભંગ કરનાર અણગાર સાંપરાયિકી जिया ४२ मे २मार अर्यापथियि ४रता नथी. मी जाव ( यावत्) શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
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