________________
२७६
भगवतीसूत्रे खाइम-साइमेणं प्रडिलाभेमाणे किं लभइ ?' प्रामुकषणीयेन-प्रगता निर्गता असवः प्राणाः यस्मात् स मासुः, स एव मासुकः अचित्तः। तथा एषणीयेन एषणादोषरहितेन अशन-पान-खादिम-स्वादिमेन प्रतिलाभयन् किम् लभते ? प्रतिलाभयतस्तस्य श्रमणोपासकस्य को लाभो भवति ? भगवानाह- 'गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव-पडिलाभेमाणे' हे गौतम ! श्रमणो पासकः खलु तथा रूपं श्रमणं वा, यावत्-माहनं चा, प्रामुकेषणीयेन अशन-पानखादिम- स्वादिमेन प्रतिलाभयन् 'तहारुवस्स समणस्स बा माहणस्स वा समाहि उप्पाएइ' तथारूपस्य श्रमणस्य वा, माइनस्य वा समाधिमुत्पादयति 'समाहिकारए णं तमेव समाहिं पडिलभई' अथ च समाधिकारकः खलु श्रावकः तमेव समाधि प्रतिलभते, इति श्रमणमाहनेभ्यः प्रासुकैषणीयाशनादिदातुः श्रावकस्य करनेवाले माहन के लिये, जीव रहित अचित्त ऐसे प्रासुक तथा एषणा दोष से रहित ऐसे एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप चार प्रकार के आहार से प्रतिलाभित करता हुआ- अर्थात् चार प्रकार का आहार दान प्रदान करता हुआ किस वस्तु का लाभ करता है। पूछने का अभिप्राय ऐसा है कि तथारूप वाले श्रमण आदिकों को दान देने से श्रावक के लिये क्या फायदा होतो है ?-उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं कि- 'गोयमा' हे गौतम ! 'समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमणे' श्रमणोपासक श्रावक जब तथारूपधारी श्रमण को यावत्-माहन को प्रासुकएषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चार प्रकारके आहारसे पतिलाभित करता है तब वह 'तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिउप्पाए इ' तथारूपधारी श्रमण अथवा माहनके लिये समाधिका उत्पादक होता है 'समाहिकोरए णं तमेव समाहिं पडिलभई' इस तरहसे समाधिका उत्पादक वह
પ્રશ્નનો આશય એ છે કે શ્રમણ આદિને દેવરહિત આહારપાણી વહરાવનાર श्रापउने । सास थाय छ ? तेने उत्तर मापता मडावी२ प्रभु छ 'गोयमा!' ड गौतम! 'समणोवासए णं तहाख्वं जाव पडिलामेमाणे श्रमास (श्रा१४) જ્યારે તથારૂપધારી શ્રમણને અથવા માહનને પ્રાસુક, એષણીય અશન, પાન, ખાદ્ય भने २पाध३५ या२ रन माहारथी प्रतितामित ४२ छे, त्यारे 'तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स का समाहि उप्पाएइ' ते तथा३५चारी अभएर मया भाडनने भाट समाधिना Bा मन छ, 'समाहिकारए णं तमेव समाहि पडिलभई' सारी समाधिन। त्या मानना ते श्रा१४ पाते में समाधिना
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫