SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ भगवतीसूत्रे माणस्स' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! श्रमणोपासकस्य श्रावकस्य खलु सामायिककृतस्य कृतसामायिकस्य श्रमणोपाश्रये आसीनस्य साघु वसतौ तिष्ठतः 'तस्स णं भंते ! किं इरिया वहिया किरिया कन्जइ ?' तस्य खलु श्रावकस्य हे भदन्त ! किम् ऐर्यापथिकी केवलयोगप्रत्यया उपशान्तमोहक्षीणमोह-सयोगि केवलिरूपत्रयस्य सातावेदनीयबन्धस्वरूपा योगनिमित्ता स्पन्दनचलनादि जन्या क्रिया क्रियते भवति ? अथवा 'संपराइया किरिया कज्जइ ?' किं सांपरायिकी क्रिया संपरायाः कषायाः तेषु भवा सांपरायिकी ऐसा पूछा है कि 'समणोवासयस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स' हे भदन्त ! ऐसा कोइ श्रमणोपासक श्रावक है कि जिसने सामायिक कर लिया है और उपाश्रयमें बैठा हआ हे तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किंरिया कजई' ऐसे उस श्रावकको हे भदन्त ! क्या ऐपिथिकी क्रिया लगती है ? अथवा 'संपराइया किरिया कजई' सांपरायिकी क्रिया लगती है ? ऐर्यापथिकी क्रिया केवल योगनिमित्तक ही होती है और यह क्रिया ग्यारहवें बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवालों के होती है इन आत्माओंके सिर्फ कषायके अभाव हो जानेसे सातावेदनीय कर्म का ही बंध होता है इसलिये यह क्रिया सातावेदनीय कर्मके बन्धस्वरूप होती है । इसका कारण योग होता है, एवं यह स्पन्दन, चलन आदिसे जन्य होती। है । यहां 'कज्जइ' इस क्रियापदका अर्थ 'लगती है' ऐसा है। सांपरायिकी क्रिया वह है जो कषायके निमित्त से होती है। संपराय नाम कषायों का है इन कषायों के होने पर कर्म के बध की कारणभूत स्वामी महावीर प्रभुने सेवा प्रश्न पूछे छे 'समणोवासयस्स णं भंते! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स' हे महन्त ! मे मेवा श्रमपास के ये सामायि४ ४२॥ मने ते उपाश्रयमा मेटे। छ, 'तस्सणं भंते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जइ' मेवात श्रमणापास (श्रा१४) ने शु मेयापायी ने छ ! 'संपराइया किरिया कइ ?' सांयिsी या छ ? अापयिहीण योगનિમિત્તક જ હોય છે. આ ક્રિયા અગિયારમાં, બારમા, અને તેમાં ગુણસ્થાનવાળા જ કરે છે. આ આત્માઓના કષાયનો અભાવ થઈ જવાથી તેમને તે કેવળ સતાવેદનીય કર્મને જ બંધ થાય છે. તેથી તે ક્રિયા સાતવેદનીય કર્મના બંધસ્વરૂપ હોય છે. તેનું કારણ યોગ डाय छ, भने त २५न्हन, गमन All | न्याय छे. मी 'कज्जा' એટલે લાગે છે એ અર્થ સમજ. જે ક્રિયા કષાયને નિમિત્ત થાય છે તે ક્રિયાને સાંપરાયિક ક્રિયા કહે છે. કષાયને જ “સં૫રાય’ કહે છે. આ કષાને જ્યારે સદભાવ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫
SR No.006319
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 05 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages866
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy