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भगवतीसो जाव-वेमाणियाणं' एवं नैरयिकामुरकुमारवदेव दण्डको भणितव्यः यावतवैमानिकानाम् , समुच्चयजीवादारभ्य वैमानिकपर्यन्तपञ्चविंशतिदण्डका विज्ञेयाः। जीवप्रस्तावात पुनः गौतमः पृच्छति-'जीवइ भंते ! जीवे, जीवे जीवइ ?' हे गौतम ! यो जीवति प्राणान् धारयति स जीवः उच्यते ? अथवा यो जीवः स जीवति प्राणान् धारयति ? भगवानाह-गोयमा ! जीवइ ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवइ, सिय णो जीवई' हे गौतम ! यो जीवति प्राणान धारयति, सतावत् नियमाद् अवश्यमेव जीवो भवत्येव जीवभिन्नस्यायुष्कर्माभावेन जीवनाऽभावात्,किन्तु यो जीवः स पुनःस्थात् कदाचिद् जीवति नैरयिकादिदशायांपर्यायरूप हो 'एवं दंडओ भाणियन्वो जाव वेमाणियाणं' नैरयिक असुरकुमार की तरह ही वैमानिक तक दण्डक कहना चाहिये अर्थात् समुच्चय जीव से लेकर वैमानिक पर्यन्त २५ दंडक जानना जीव के प्रस्ताव को लेकर गौतम प्रभुसे पूछते हैं कि-'जीवइ णं भंते! जीवे, जीवे जीवई' हे भदन्त ! जो जीता है अर्थात् प्राणों को धारण करता है वह जीव कहलाता है कि जो जीव होता है वह प्राणों को धारण करता है ? इसके उत्तर में प्रभु उनसे कहते हैं कि-'गोयमा' हे गौतम ! 'जीवइ ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवइ, सिय णो जीवई' जो प्राणोंको धारण करता है वह नियमसे जीव होता है पर जो जीव होता है वन प्राणोंको धारण करता भी है और नहीं भी धारण करता है। तात्पर्य कहने का यह है कि जीव जो जीता है वह आयुकर्म कर्म के सद्भाव से ही जीता है अतः जीवसे भिन्न पदार्थमें 'दंडओ भाणियन्दो जाव वेमाणियाणं' ना२४ भने असुरभारनी भर વૈમાનિકે, પર્યંતના દંડક કહેવા જોઈએ. એટલે કે અમુચ્ચય જીવથી લઈને વૈમાનિકે સુધીના ૨૫ દંડક સમજવા.
व गौतम स्वाभी छपने अनुभक्षीने प्रभारी प्रश्न पूछे छ-'जीवह भते! जीवे. जीवे जीवड ?? महन्त ! रे ७वे छे - प्राचीन धा२९१ ४२ छ- ते ७ ગણાય છે, કે જે જીવ હોય છે તે પ્રાણેને ધારણ કરે છે ? તેને જવાબ આપતા भडावीर प्रभु छ- 'गोयमा! गौतम ! 'जीवड ताव नियमा जीवे. जीवे पुण सिय जीवइ सिय णो जीवई' रे पाने पा२९५ ४२ छ त तो नियमथी । જીવ ગણાય છે, પણ જે જીવ હોય છે તે પ્રાણેને ધારણ પણ કરે છે અને નથી પણ ધારણ કરતે. આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે- જીવ જે જીવે છે (જીવન ધારણ કરે છે) તે આયુકર્મના સદ્ભાવથી જ જીવે છે, તેથી જીવથી ભિન્ન પદાર્થમાં
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૫