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________________ किम् ? याव संग्राह्यम् । मर्थः, नैवं प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३उ.६.२ अमायिनोऽनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७५१ सनिवेशरूपं वा, 'विउवित्तए' विकुर्वितुम् ‘पभू' प्रभुः समर्थः किम् ? यावत्पदेन निगमरूपमारभ्य आश्रमरूपपर्यन्तं संग्राह्यम् । भगवानाह-'णो इणद्वे समट्ट' नायमर्थः समर्थः, नैवं भवितुमर्हति, बाह्यपुद्गलपरिग्रहणमन्तरा विकुर्वणा नैव सम्भवति, ‘एवं वितिओ वि आलावगो' एवम् उक्तरीत्या द्वितीयोऽपि आलापको विज्ञातव्यः, 'गवरं' नवरम्-विशेषस्तु पुनरयम्-यत् 'बाहिरए पोग्गले' बाह्यान् पुदगलान् ‘परियाइत्ता' पर्यादाय परिगृह्य 'पभू' प्रभुः समर्थः किल विकुर्वितम् । गौतमः पृच्छति-'अणगारे णं भंते !' हे रूव वा विउवित्तए पभू' एक विशाल ग्राम के रूपकी, अथवा नगर के रूपकी यावत् संनिवेश के रूपकी विकुर्वणा करनेके लिये समर्थ है क्या ? यहां यावत् पदसे 'निगमरूप से लेकर आश्रमरूपतकका पाठ ग्रहण किया गया है । भगवान् इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि 'णा इणढे सम' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् बाह्यपदलोंकों ग्रहण किये विना विकुर्वणा का होना संभवित नहीं होता है । "एवं बितीओ वि आलावगो' इसी प्रकार से दूसरा आलापक भी जानना चाहिये । 'नवरं' परन्तु इस द्वितीय आलापक सूत्र में 'बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू' ऐसा पाठ समझना चाहिये अर्थात् वह भावितात्मा अमायी सम्यक्दृष्टि अनगार बाह्यपुद्गलोंको ग्रहण करके ग्राम आदिकों के रूपकी विकुर्वणा करने के लिये समर्थ है। गौतम इस पर पूछते हैं कि हे भदन्त ! यदि वह अनगार बाह्यपुद्गलोको ग्रहण करके गामादिकोंके रूपोंकी विकुर्वणा करने में ગામના રૂપની અથવા નગરના રૂપની અથવા સંનિવેશ પર્યન્તના રૂપની વિકૃણા ४२वाने शु समय छ ? मी 'जाव' (यावत) ५४थी 'निगम' थी बने 'आश्रम' પયેતના રૂપે ગ્રહણ કરાયાં છે. उत्तर-'णो इणद्वे समझे' हे गौतम बुं मनी २४तु नथी. मा युद्धहोने अड या विना विgafegl थ६ २४ती नथी. 'एवं बितीओ वि आलावगो' भीन्न माला५४ ५५४ २०८ प्रमाणे सभv1. 'नवरं पडसा माता५म 'म युद्ध ને ગ્રહણ કયાં વિના વિકુણા કરવા વિષે પ્રશ્ન કર્યો છે, તેને બદલે બીજા આલાપકમાં 'बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभ्र' सभ समपार्नुछ तेममाया सभ्यष्टि અણગાર બાહ્ય પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરીને ગ્રામોદિ રૂપની વિદુર્વણુ કરવાને સમર્થ છે. પ્રશ્ન–જે તે અણગાર બાહ્ય પુલોને ગ્રહણ કરીને ગ્રામાદિ રૂપની વિકર્ષણ ४री श? छे, तो 'अणगारेणं भंते ! भावियप्पा केवइयाइं गामरूबाई विकुन्धि શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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