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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३उ.६सू. २ अमायिनोऽनगारस्य विकुर्वणानिरूपणम् ७४५ खलु अमायिनोऽनगारस्य एवम् अविपरीतज्ञानं भवति यत्-‘एवं खलु अहं' 'रायगिहं नयरं समोहए' राजगृहं नगरं समवहतः 'समोहणित्ता' समवहत्य च 'वाणारसीए नयरीए' वाराणस्यो नगर्या स्थितः 'रूबाई' राजगृह गतानि चैक्रियरूपाणि 'जाणामि, पासामि' जानामि, पश्यामि, इत्येवम् ‘से से दंसणे' तत तस्य अमायिनोऽनगारस्य दर्शने 'अविवच्चासे' अविपर्यासो भवति, उपसंहरति'से तेणष्टेणं' तत्तेनार्थेन 'गायमा !' हे गौतम ! 'एवं वुच्चइ' एवम् उक्तरीत्या उच्यते, 'बीओ आलावगो एवंचेव' द्वितीयः आलापकः, एवमेव, उप'तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं रायगिहे नयरे समोहए' उस भावितात्मा अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार के मनमें ऐसा अविपरीत विचार रहता है कि मैंने राजगृहनगरकी विकुर्वणा को है और 'ममोहणित्ता' विकुर्वणा करके वाणारसीए नयरीए' वाणारसो नगरीमें 'ख्वाइं जाणामि पासामि' राजगृहनगरके विकुर्वित मनुष्यादि रूपों को मैं जान देख रहा हूँ। 'से' इस कारण से उसके 'दसणे' दर्शन-देखने में 'अविवञ्चासे भवई' अविपर्यासपना अविपरीतपना होता है। ‘से तेणटेणं' इस कारण 'गोयमा' हे गौतम ! 'एवं बुचइ मैंने ऐसा कहा है कि वह तथाभावसे जानता देखता हैं, अन्यथाभाव से जानता देखता नहीं है। बीओ आलावगो एवं चेव द्वितीय आलापक भी इसी तरह से जानना चाहिये अर्थात् जैसा ऊपरमें प्रथम आलापक के विषयमें यह कथन किया गया है-इसी प्रकारका कथन द्वितीय आलापकके विषय में समझलेना चाहिये 'नवरं, परन्तु प्रथम आलापक ___उत्त२-'गोयमा !' गौतम ! ' तस्सणं एवं भवइ ' तेना भनमा मेवा मविपरीत विचार अधाय छ । ' एवं खलु अहं रायगिहे नयरे समोहए। में 23 नगनी विgag ४॥ छ, भने 'समोहणित्ता' विgu ४शन 'वाणारसीए नयरीए' पासी नगरीभ मेi si 'रूघाइं जाणामि पासामि' हुँ २०१४ड नगरना मनुष्याहि वैठिय३पाने tet हेमा त्यो छु . 'से' ते २0 'से दसणे' तेना शनमा 'अविवच्चासे भवई' भवितता डाय छ-विपर्यासमा तो नथी. 'से तेगडेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ' हे गौतम ! ते २णे में मेj કહ્યું છે કે તે અણગાર તે રૂપને યર્થાથરૂપે જાણે દેખે છે, અયથાર્થભાવે જાણતો हेमतो नथी. 'बीओ आलावगो एवं चेव' मी मादाय ५५ मे प्रमाणे ४ સમજ એટલે કે પહેલા આલાપકના વિષયમાં જે કથન ઉપર કરાયું છે, એવું જ કથન શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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