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प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.४ सू. २ वैक्रियवायुकायव्यक्तन्यतानिरूपणम् ६१७ गन्तुम् ! हन्त, प्रभुः, स भदन्त ! किम् आत्मदर्या गच्छति ! परद्धर्या गच्छति ! गौतम ! आत्मद्धों गच्छति, नो परद्धर्या गच्छति, यथा आत्मद्धर्था, एवंचैव आत्मकर्मणापि, आत्मप्रयोगेणापि भणितव्यम्, स भदन्त ! किम् उच्छ्रितोदयं गच्छति, पतदुदयं गच्छति ! गौतम ! उच्छ्रितोदयमपि गमित्तए) हे भदन्त ! वायुकाय एक विशाल पताका के आकार जैसा रूप अपनी विक्रिया शक्तिसे बनाकर अनेक योजनों तक जानेके लिये समर्थ है क्या ? (हंता पभू) हा गौतम ! वायुकाय एक विशाल पताका के आकार जैसा रूप अपनी विक्रियाशक्तिसे बनाकर अनेक योजनों तक जानेके लिये समर्थ है। (से भंते । किं आयड्ढीए गच्छइ, परड्ढीए गच्छइ) हे भदन्त ! वह वायुकायिक अपनी निजकी ऋद्धि (शक्ति) से गमन करता है या परकी ऋद्धिसे गमन करता है ? (गोयमा ! आयड्ढीए गच्छइ, नो परडूढीए गच्छइ, जइ आयड्ढीए एवंचेव आयकम्मुणा वि, आयप्पयोगेणं वि भावियव्वं) हे गौतम ! वायुकाय अपनी निजकी ऋद्धिसे गमन करता है, परकी ऋद्धिसे गमन नहीं करता है । जिस तरह वह अपनी निजकी ऋद्धि से गमन करता है, इसी तरह वह अपने कर्मसे भी और अपने प्रयोगसे भी गमन करता है ऐसा जानना चाहिये। (से भंते ! किं असिओदगं गच्छइ, पयओदयं गच्छइ) हे भदन्त ! वायुकाय ऊँची हुई पताकाकी अणेगाइं जोयणाइं गमित्तए ) 3 महन्त ! पोतानी वैठिय तिथी २४ qिaon પતાકા જેવું રૂપ બનાવીને, વાયુકાય અનેક જનો સુધી જઈ શકવાને શકિતમાન छे मरु ? (हंता, पभू ) 1. गौतम ! मे विशाण पता वैठिय३५ मनावीन भने यौन सुधी ४६ ५४वाने ते समर्थ छ. ( से भंते ! कि आयड्ढीए गच्छइ, परडीए गच्छड ? ) महन्त ! वायुय घोतानी ४ ऋद्धि (शत)थी गमन ४२ छ, पा२४ी *द्धिथा गमन ४२ छ ? (गोयमा ! आयडूढीए गच्छइ, नो परडूढीए गच्छइ, जहा आयड्ढीए एवंचेव आयकम्मुणा वि, आयप्पयोगेणं वि भाणियव्वं ) 3 गौतम! वायु।५ पोतानी ४ *द्धिी गमन ४२ थे, पाणी ઋઝિથી ગમન કરતું નથી. તેમ તે તેની પોતાની જ ઋદ્ધિથી ગમન કરે છે, એજ પ્રમાણે તે પોતાના કર્મથી પણ ગમન કરે છે અને પ્રગથી પણ ગમન કરે છે, मेम सभा. (से भंते ! किं ऊसिओदयं गच्छइ, पयोदयं गच्छइ ?) હે ભદન્ત! તે વાયુકાય ઊંચે ફરકતી પતાકાના જેવું રૂપ કરીને ગતિ કરે છે? કે નીચે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩