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भगवतीमत्रे असुरेन्द्रेण — असुररण्णा' असुरराजेन एवं पूर्वोक्तप्रकारेण 'वुत्ता' उक्ताः उदित्ताः 'समाणा' सन्तः 'हतुट' हृष्टतुष्ठाः प्रसन्नाः संतुष्टाश्च भूत्वा 'जाव-हियया' यावत् हृदयाः आनन्दोन्मग्नाः यावत्पदेन हर्षवशविसर्पद् हृदया इति बोध्यम् । 'करयलपरिग्गहिरं' करतलपरिगृहीतं करतलपरिगृहीतं करतलयुक्तम् 'दसनह' दशनखं 'सिरसावत्तं' शिरसाऽऽवर्त शिरसि दक्षिणावर्त 'मत्थए' मस्त के अञ्जलिं 'कट्ट' कृत्वा करपुटं संयोज्य 'जएणं' जयेन 'विजएणं' विजयेन ‘वद्धावति' बर्दा में उत्पन्न हुए उन सामानिक देवों ने जब इस प्रकार की कही गई 'असुरिंदेणं असुररण्णा चमरेणं' असुरेन्द्र असुरराज उस चमरेन्द्रकी बात सुनी-अर्थात् 'एवं बुत्ता समाणा' जब वे चमरेन्द्र के द्वारा इस प्रकार से कहे गये-तब वे सब के सब बहुत 'हहतुहा' ही हर्षित हुए आनन्द से उनका हृदय उच्छल पडा-उन्हें बहुत अधिक संतोष प्राप्त हुआ यावत् 'हयहियया' हृतहृदयवाले वे बन गये-अर्थात् अपने स्वामी के इस प्रकार के साभिमान वचन सुनकर उनका हृदय उसकी वीरता के प्रति खिंच गया-'यावत्' पदसे यहां 'हर्षवशविसर्फत् हृदया' ऐसा पद ग्रहण किया गया है। करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु' उन्होंने उसी समय दशों ही नख जिसमें आपस में मिलजावें इस प्रकार की दोनों हाथों की अंजुलि बनाकर उसे दाहिनी तरफ से वायीं तरफ मस्तक के ऊपर से घुमाते हुए 'जएणं विजएणं' जय, विजय शब्दोच्चारण पूर्वक 'वद्धावेंति' ते सामानि हे। 2 'असुरिंदेणं असुररगणा चमरेणं एवं बुत्ता समाणा' न्यारे भासुरेन्द्र असु२२६०८ यमरने या प्रमाणे तो समस्या त्या 'हटतुट्टा' तेम। धणे। हर्ष भने सतोष पाभ्या. 'हयहियया तेभनय भान हथी नायी यु. डपार्नु તાત્પર્ય એ છે કે પોતાના સ્વામીના ઉપરોકત સ્વમાન ભર્યા શબ્દ સાંભળીને સ્વામીની વીરતાથી તેઓ મુગ્ધ બની ગયા અમરેન્દ્રના આવા ગૌરવયુકત વચનોએ તેમનાં હૃદયોને तनी त२६ २७०. ही 'यावत्' ५४थी 'हर्षवशविसर्पत् हृदया' ५४ अ५ ४२॥ છે, આ રીતે જેમનાં હૃદયમાં હર્ષને ઉભરો આવ્યો છે એવા તે સામાનિક દેવાએ શું કર્યું તે નીચેના સૂત્રપાઠ દ્વારા પ્રકટ કર્યું છે.
'करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कह' भन्ने हथिनी આંગળીઓના દસે નખ એક બીજાને સ્પશે એવી રીતે બન્ને હાથને જોડીને, બન્ને डायनी Arla roll तथा मी त२६ मस्त ५२थी धुभावान 'जएणं
श्री. भगवती सूत्र : 3