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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३. उ.२ म. ५ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रियानिरूपणम् ३९५ विहरति 'एवं पूर्वोक्तप्रकारेण स चमरः 'संपेहेई' संप्रेक्षते विचारयति 'संपेहित्ता' संप्रेक्ष्य विचार्य 'सामाणियपरिसोववन्नए' सामानिकपर्षदुपपन्नकान् सामानिकान् ‘देवे' देवान् सदावेई' शब्दायते आह्वयति, आहूय च तान 'एवम् वक्ष्यमाणमकारेण 'वयासी' अवादीत- देवाणुप्पिया !' भो देवानुप्रियाः । ' के स णं एस 'कः खलु एषः तुच्छ शक्रः 'अपत्थिअपत्थए' अप्रार्थितप्रार्थकः मुमूर्षुः सन् 'जाव-मुंजमाणे' यावत् भुञ्जानः 'विहरति ? यावत्पदेन 'दुरंतपंतलकखणे, हिरिसिरिपरिवजिए इत्यारभ्य 'दिव्वाई भोग भोगाई' इत्यन्तं संग्राह्यम् 'तएणं' ततः खलु ते 'सामाणिअपरिसोववनगा' सामानिकपरिषदुपपन्नकाः सामानिकाः देवाः 'चमरेणं' चमरेण 'असुरिंदेणं' तल्लीन बना हुआ है । ‘एवं संपेहेइ' इस प्रकार से उसने विचार किया. और 'संपेहिता' विचार करके 'सामाणियरिसोववन्नए देवे' सामानिक परिषदामें उत्पन्न हुए देवोको अर्थात् सामानिक देवांको 'सद्दावेइ' बुलाया । बुलाकर ‘एवं वयासी' उनसे ऐसा कहा-'केस णं एस देवाणुप्पिया!' हे देवानुप्रियो ! देखो तो सही यह तुच्छ शक्र कौन है 'अपत्थियपत्थिए जाव भुंजमाणे विहरई' क्यों यह मेरें समक्ष मरणका अभिलाषी बना हुआ है-इसे जरा सी भी लज्जा नहीं आती जो मेरे आत्मगौरवको ठेस पहुँचाता हुआ अपन दिव्य भोगों के भोगनेमें विना किसी संकोच के तल्लीन बन रहा है। उसके ये सब लक्षण मुझे ठीक नहीं मालूम देते हैं वह कुलच्छी है और अभागा है । वह सब पूर्वोक्त कथन यहाँ 'यावत् पद से कहा गया है। 'तएणं ते सामाणियपरिसोववन्नगा देवा' सामानिक परिषदा सागवानी भित ४२॥३॥ ते । छ ? 'एवं संपेहेइ' यमरेन्द्र ७५२ प्रमाणे पियार ज्यो. 'संपेहित्ता' मे विया२ ४शन 'सामाणियपरिसोववन्नए देवे सद्दावेइ' तेथे સામાનિક પરિષદમાં ઉત્પન્ન થયેલા એટલે કે સામાનિક દેવેને બોલાવ્યા અને તેમને 'एवं वयासी' मा प्रमाणे ४यु- 'अपत्थियपत्थिए जाव भुंजमाणे विहरइ' હે દેવાણુપ્રયો! મારાથી ઊંચે સ્થાને રહીને આ પ્રકારના ભેગને ભેગવનાર તે કોણ છે? મારા આત્મગૌરવને હણતા તેને શરમ પણ નથી આવતી? મને તે એમ લાગે છે કે તેના આ બધાં લક્ષણે સારાં નથી. તેને મરવાની ઈચ્છા થઈ લાગે છે! વગેરે समस्त यन मही 'जाव' ५६था प्र राय छे, 'तएणं ते सामाणियपरिसोववन्नगा देवा' सामानि परिक्षामi Sपन्न ये॥ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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