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________________ ३९४ भगवतीमत्रे पुण्यः हीनपुण्यश्चासौ चातुर्दशिको हीनपुण्यचातुर्द शिकः इति । पुण्यवान् हि शुक्लचतुर्दश्यां जायते अयं तु पुण्यरहितः । 'जं णं' यत् खलु 'मम' मम 'इमाए' अस्याम् 'एयारूबाए' एतद्रूपायाम् सम्प्रति अभिधास्यमानस्वरूपायाम 'दिव्वाए' दिव्यायाम् ‘देवड्डीए' देवद्धौं देवद्युतौ च लब्धायां सत्याम् 'जावदिव्वे' यावत्-दिव्ये 'देवाणुभागे' देवानुभावे 'लद्धे पत्ते' लब्धे प्राप्ते 'अभिसमण्णागए' अभिसमन्वागते परिभुक्ते सत्यपि 'उप्पि' उपरि मम मस्तकोपरि चरणयुगलं निधाय 'अप्पुस्सुए' अल्पोत्सुकाः अनुत्कण्ठः शान्तो भूत्वेत्यर्थः 'दिव्बाई' दिव्यान् 'भोगभोगाई' भोगभोगान् ‘भुजमाणे' भुञ्जानो विहरइ जिसका हीन-कम हैं वह हीनपुण्य है. हिनपुण्यवाला जो चातुर्दशिक हैं वह हीनपुण्यचातुर्दशिक हैं क्यों कि पुण्यशाली जीव शुक्लचतुदशीके दिन उत्पन्न होता है । परन्तु यह ऐसा नहीं है-अतः हीनपुण्यचातुर्दशिक है । जो यह ऐसा नहीं होता तो क्यों मेरे मस्तक ऊपर अपने पैरों को रखकर शांतिरूप से दिव्यभोगोंके भोगने में लगा होता । वही बात 'जं णं ममं' इत्यादि-सूत्र पाठ द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते है-कि वह चमरेंन्द्र अपने मनमें इस प्रकार विचार कर रहा है कि मैंने यह इस प्रकारकी दिव्य देवर्द्धि लब्ध की है प्राप्तकी है और उसे अपने भोग के योग्य बनाया है, यावत् दिव्य देवानुभाव भी लब्ध किया है, प्राप्त किया है, और उसे मैं इस समय भोग भी रहा हूं-ऐसी मेरी पुण्य परिस्थिति बन रही है तो फिर यह कौन हैं जो 'अप्पस्मए' निःशंक होकर 'उप्पि' मेरे मस्तक पर अपने दोनों पैरोंको जमाकर दिव्य भोगोंके भोगनेमें જેનું પુણ્ય ન્યૂન છે તેને હનપુણ્ય કહે છે. આ રીતે હનપુણ્યવાળા ચાતુર્દશિકને “હીનપુણ્યચાતુર્દશિક કહે છે કારણ કે પુણ્યશાળી જીવ તે શુકલ પક્ષની ચૌદશે જન્મ લે છે. જે તે ઉપરોકત વિશેષણોવાળ ન હોત તે મારા મસ્તક પગ રાખીને દિવ્ય मागोन मागवानी हमत शनी ४२त ! 4जी ते पियार छ ज णे मम ઈત્યાદિ મેં પણ એવી જ દિવ્ય દેવદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી છે અને તે દેવદ્ધિ અદિને મારે અધીન બનાવી છે અને તેને મારે માટે ભોગ્ય બનાવી છે. મેં પણ દિવ્ય દેવહુતિ દિવ્ય દેવબળ અને દિવ્ય દેવપ્રભાવ પ્રાપ્ત કરેલા છે, અને અત્યારે હું તેને ઉપગ પણ કરી २वी छुः सा प्रमाणे पुश्य परिस्थिति पाभ्यो छु ७ri पण 'अप्पस्मए' नि: બનીને-નિર્ભય બનીને મારા મસ્તક પર બન્ને પગને રાખીને દિવ્યભાગે શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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