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________________ पमेयचन्द्रिका टीका श. ३. उ. २ सू० ५ चमरेन्द्रस्योत्पातक्रियानिरूपणम् ३९१ धरम्, आलिङ्गितमालमुकुटम्, नवहेमचारुचित्रचञ्चलकुण्डलविलिख्यमानगण्डम् इत्यादि दिव्येन तेजसा दिव्यया लेश्यया इत्यन्तं संग्राह्यम्, 'पभासेमाणं' प्रभासयन्तम् तं शक्र यत्र यत्परिवरं यत्कुर्वाणं चमरः पश्यति तत्र तत्तत् प्रतिपादयति- सोहम्मे कप्पे' इत्यादि । सौधर्म कल्पे ' सोहम्मवडिंसए' सौधर्माऽवतंसके "बिमाणे विमाने 'सक्क सि' शक्रे 'सीहासणंसि' सिंहासने 'जावदिव्वाइ' यावद् दिव्यान् यावत् करणात् द्वात्रिंशल्लक्षविमानावासाम् , चतुरशीतिसहस्रसंख्यकसामानिकदेवानाम् , त्रयस्त्रिंशत् आयस्त्रिंशकानां गुरुस्थानीयदेवानाम् चतुर्णा सोमादि लोकपालानाम् सप्तानीकानाम् , सप्तानीकाधिपतीनाम् , षट् त्रिंशत्सहस्राधिकलक्षत्रयात्मरक्षकदेवानां सपरिवाराणाम् पद्मा-शिवा-सेवाअजू-अमधा-अप्सरा-नवमिका--रोहिणी नामाग्रमहिषीणाम् अन्येषां देवानां अरजस्क तथा आकाश जैसा निर्मल वर वस्त्रोंको सदा यह पहिरे रहता हैं, माला से युक्त मुकुट को यह सदा माथे पर धारण किये रहता हैं, मानो नवीन ही हैं ऐसे सुन्दर सौने के चित्रविचित्र चंचल कुडलों से जिसके दोनों कपोलमंडल चलकते रहते है, इत्यादि विशेषणोंसे विशिष्ट इन्द्र-शक को उसने अर्थात् चमरेन्द्रने देखा-यह पाठ "दिव्य तेजसा दिव्यया लेश्यया यहां तक ग्रहण करना चाहिये यह बात यहां पर आये हुए इस यावत् शब्द से सूत्रकारने प्रकट की है। तथा 'जाव दिव्वाइं भोगभोगाई' में जो यावत्पद आया है उससे '३२ लाख विमानावासोंका, ८४ हजार सामानिक देवों का, गुरुस्थानीय ३३ वायस्त्रिंशक देवोंका, चार सामानिक लोकपालोंका, सात प्रकार के मैन्य का, सात सेनापतियों का, तीन लाख ३६ हजार आत्मरक्षक देवोंका, सपरिवार पद्मा, शिवा, सेवा, अज्जू, સદા ધારણ કરે છે, તે હમેશાં માળાઓવાળા મુકુટને મસ્તક પર ધારણ કરે છે, જાણે કે નવાં જ બનાવ્યાં હોય એવાં સુવર્ણ નિર્મિત ચિત્ર વિચિત્ર ચંચળ કુંડળેથી જેના भन्ने त यमली रह्या छ, त्यहि विशेषाथी युत शन्द्रने यमरेन्द्रलयो 'दिव्य तेजसा दिव्यया लेश्यया' पाताना हिव्य तेथी भने हिव्य तनश्याथी से दिशामान ते दीप्यमान री २wो हतो. तथा 'जाव दिव्वाइं भोगभोगाई' wi मासा 'जाव' ५४थी नीयन भावार्थ र ४रायो छ-"३२. म विमानावासार्नु, ૮૪ હજાર સામાનિક દેવનું, ગુરુસ્થાનીય ૩૩ ત્રાયશ્ચિશક દેવેનું, રોમાદિક ચાર લોકપાલેનું, સાત સેનાઓનું, સાત સેનાપતિયોનું, ૩ લાખ ૩૬ હજાર આત્મરક્ષક वोर्नु, सपरिवार 18 पट्टराणीमान, [पक्षा, शिवा, सेवा, म, ममता, असते, શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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