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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३ उ. १ मोकानगर्यां वीरसमवसरणम् ११ " (पडिसाडित्ता पर्यादत्ते, पर्यादाय द्वितीयमपि वैक्रियसमुद्घातेनसमवहन्ति, समवहत्य प्रभु गौतम! चमरः असुरेन्द्र:, असुरराजः केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं बहुभिः असुरकुमारैः देवैः, देवीभिश्व आकीर्णम्, व्यतिकीर्णम्, उपस्तीर्णम्, संस्तीर्ण स्पृष्टम्, अवगाढावगाढं कर्तुम् । अथोत्तरं च खलु गौतम ! प्रभुवमरः असुरेन्द्रः, असुरराजस्तिर्यग असंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् बहुभिः असुरकुमारैः देवैः, देवीभिश्च यथावादर पुग्दलों को दूर कर देता है ( पडिसाडिता अहासुहुमे पोग्गले परियारह) उन्हें दूर करके उनके सारभूत पुग्दलों को ग्रहण करता है | ( परियाइत्ता ) ग्रहण करके वह (दोचंपि) बेव्विय समुग्धाएणं समोहण) दुबारा भी वैक्रियसमुद्वात से युक्त होता है- अर्थात् दुबारा भी वह वैक्रिय समुद्धात करता है ( समोहणित्ता पभू णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं बहूहि असुरकुमारेहिं देवेहिं देवोहि य आइण्णं वितिकिण्णं उवस्थ, संथडं, फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए) समुद्धात करके हे गौतम ! वह असुरेन्द्र और असुरराज चमर समस्त जंबूद्वीप नामके द्वीपको असुरकुमार देवों से और देवियों से आकीर्ण करने के लिये समर्थ है, व्यतिकीर्ण करने के लिये समर्थ है, उपस्तीर्ण करने के लिये समर्थ है, संस्तीर्ण करने के लिये समर्थ है, स्पष्ट करने के लिये समर्थ है और अवगाढावगाढ करने के लिये समर्थ है। (अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरे असुरिंदे असुरराया अहामुहुमे पोग्गले परियाएइ) तेभनां सारभूत यु‌गसोने ग्रहण पुरे है(परियाइत्ता) ग्रड ने (दोचंपि वेउव्वियसमुग्धारणं समोहरणइ ) मील वार वैडिय समुद्घात उरे छे (समोहणित्ता पभ्रूणं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि देवीहि य आइण्णं वितिकिणं उवत्थडं, संथडं, फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए) हे गौतम! તે અસુરરાજ અને અસુરેન્દ્ર ચમર સમુદ્ઘાત કરીને સમસ્ત જંબૂદ્બીપ નામના દ્વીપને અસુરકુમાર દેવાથી અને દેવીએથી આ કીણુ (વ્યાપ્ત) કરવાને સમર્થ છે, વ્યતિકી (जीयाजीय भरवाने) समर्थ छे. उपस्तीर्ण (उपर नीचे व्याप्त सारछहित) કરવાને સમર્થ છે, સંસ્તી કરવાને (તલભાર જગ્યા ન રહે એવી રીતે ભરી દેવાને) સમર્થ છે, પૃષ્ટ કરવાને સમર્થ છે અને અલગાઢાવગાઢ કરવાને (अतिशय ! मीलना उपरा उपरी गोठवाय मेवुं) वानेपणु समर्थ छे. ( अदुत्तरं च णं गोवमा ! पभू चमरे अमुरिंदे असुरराया तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे बहूहिं શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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