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भगवतीसूत्रे 'पसहि' पशुभिः, पूर्वोक्तमेव गोवलीवर्दन्यायेन सविशेषमाह "विपुल-धण-कणगरयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण संतसारसावएज्जेणं" विपुल धन-कनक-रत्न-मणि-मौक्तिक-शंख-शिलाप्रवाल-रक्तरत्नसत्सारस्वापतेयेन. तत्र 'विउलं' विपुलं-प्रचुरम् विपुलशब्दस्य सर्वत्रान्वयः कर्तव्यः, धनं-गणि मादिरूपम् कनक-सुवर्ण, रत्नं-कर्केतनादिकम् , मणिश्चन्द्रकान्तादिः, मौक्तिकं प्रसिद्धम् , शङ्खः-दक्षिणावर्ता दिः शिलाप्रवालं-विद्रुमम् यद्वा शिला-शुभलक्षण पाषाणविशेषः, रक्तरत्न-पद्मरागादिकम् , सत्सारं-शोभनसारयुक्तम् स्वासे बढ रहा हूं, 'पसूहिं वडामि' पशुओं से बढ रहा हूं, अर्थात् इन सब धन धान्यादिक की मेरे यहां अधिक मात्रा में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है. इस तरह 'विउल धण-कणग-रयण-मणिमोत्तिय संख-सिलप्पवाल-रत्त-रयण-संतसारसावएज्जेणं अईव२ आभवटामि' मेरे यहां पर विपुलमात्रामें धन, कनक, रत्न, मणि मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न, सत्सारवाला स्वापतेय-धन बहुत बहुत रूपसे बढ़ रहा है। विपुल शब्द का अर्थ प्रचुर है और इसका संबंध धन कनक आदि सबके साथ लगा लेना चाहिये । गणिमादिरूप पदार्थ धनशब्दसे गृहीत हुए हैं । कनक शब्दका अर्थ सुवर्ण सोना है । ककतनादिकरत्न रत्न पदसे लिये गये हैं। चन्द्रकान्तादि मणि मणिपद से गृहीत हुए हैं। मौक्तिक प्रसिद्ध हैं । दक्षिणावर्तादि शंख शंख पदसे लीये गये हैं। शिला प्रवाल से मूगा लिया गया है। अथवा शुभलक्षणोंवाला जो पाषाण विशेष होता है वह शिला है ऐसा "पुत्तेहि वडामि" संतानाना पY वृद्धि थ२ढी छ, “पहिं बढामि" भने आय, लेस माहि पशुमानी ५ वृद्धि थ२डी छ. मे प्रमाणे "विउल धणकणगरयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्त- रयण - संतसारसावएज्जेणं अईव२ अभिवामि." मारे त्यां धन, 13 (सुवण), २९न, मणि, मोती, म शिक्षा, प्रवास, २४त रत्न, अने सत्सारा स्वापतेय ( सा२३५ द्रव्य समुदाय ) વગેરેમાં વિપુલ પ્રમાણમાં વધારો થઈ રહ્યો છે. વિપુલ એટલે મોટા પ્રમાણમાં. અહીં દરેક શબ્દ સાથે તેને પ્રયોગ કરવાનો છે. ધન શબ્દથી ગણિમ (સેનામહોર) આદિ સિકકા પ્રહણ કરવા. કનક એટલે એનું. રત્ન એટલે કેતન આદિ રત્નો, મણિ એટલે ચન્દ્રકાન્ત આદિ મણિ, મૌકિતક એટલે સાચાં મેતી, શંખ એટલે દક્ષિણાવર્ત આદિ શંખ, શિલાપ્રવાલ એટલે મૂંગા (પરવાળાં) અથવા શુભ લક્ષણવાળા પાષાણુ વિશેષને માટે શિલા શબ્દને પ્રવેગ કર્યો છે અને પ્રવાલ એટલે પરવાળાં. પદ્મરાગ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩