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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.३. उ.१ ईशानेन्द्रस्य देवद्धर्यादिप्राप्तिकारणनिरूपणम् १८५ 'सुचिणाणं' सुचीर्णानाम् सम्यगाचरितानाम् 'सुपरिवंताणं' सुपरिक्रान्तानाम् सुपराक्रमयुक्तानां सम्यगाचरिततपःप्रभृतिबलपराक्रमशालिनाम् 'सुभाणं' शुभानाम् प्रशस्तानाम् ' कल्लाणाणं' कल्याणानाम्-सुखपरम्पराजनकानाम् 'कडाणं' कृतानां 'कम्माणं' कर्मणाम् ' कल्लाणफलवित्तिविसेसो' कल्याणफलवृत्तिविशेषः सुखात्मकफलभोगजनकपुण्योदयः अस्तीति पूर्वेणान्वयः 'जेणाई' येनाहं हिरपणेणं' हिरण्येन रजतेन 'वइहामि' वर्द्ध-वृद्धिं प्राप्नोमि 'धणेणं' धनेन गणिमपरिम-मेय-परिछेद्यरूपेण “वइढामि" बर्दै 'धण्णेणं' धान्येन 'पुत्तेहि पुत्रैः रिक्ताणं, सुभाणं, कल्लाणाणं, कडाणं कम्माणं कल्लागफलवित्तिविसेसो' कि मौर्यपुत्र ताम्रलिप्त विचार करता है..कि जबतक मेरे पूर्वकृतपूर्वभवोपार्जित शुभकर्मों का कि जिन्हें मैंने अच्छी तरह से दान आदिरूपमें आचरित किया है, और जो अच्छी तरहसे किये गये तप वगैरहसे तथा बल पराक्रम आदि से युक हैं, सुखपरम्परा के जनक हैं, यह कल्याण फलवृत्तिविशेष है अर्थात् उन पूर्वभवोपाजित पुण्यकर्मोका ही यह आनन्ददायक फल है कि 'जेणाई' जिससे मैं 'हिरण्णेणं बड्डामि' चांदी से खूब बडा बढा हूं-मेरे पास बहुत अधिक चांदी हैं, तथा वह और भी अधिक रूप में बढ़ती ही जा रही है 'सुधण्णेणं वामि' सुवर्णसे बढ रहा हूं सुवर्णसे मेरा भंडार खूष भरा हुआ है, तथा वह और भी अधिकमात्रामें बढ़ रहा है, 'धणेणं वडामि' गणिम, धरिम, मेय, परिच्छेद्यरूप चार प्रकार धनसे बढ़ा चढा हूं तथा और भी अधिक रूपसे वह बढता जा रहा है-गणिम धरिम आदिरूप धन आठों प्रहर मेरे घरमें मानों बढता ही जाता है, 'धण्णेणं चामि' धान्य-अनाज से बढ रहा हू 'पुत्तेहिं वदामि' पुत्रों ___"अत्थिता मे पुरा पुराणाणं मुविचागणाणं सुपरिवंकताणं, सुभाणं, कल्लाणाणं, कडाणं कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसो" पूर्वममा सारी शत घेता દાન તથા પૂર્વભવમાં કરેલા શુભકમના તપ વગેરેના ફળના વિપાક (પરિણામ) રૂપે मा ४८- यारी, मानहायी ७ प्राप्त थयु छ. "जेणा" रेशुभ भना यथी भारे त्या "हिरणेणं वडामि, यह qual or otय छ – भारी पासे all यही छ भने तमा ७ ५४ धा। यया ॥ ४३ छ, "सुवण्णेणं बट्टामि" મારા ભંડારો સુવર્ણથી ભરપૂર છે. અને હજી પણ તેમાં સુવર્ણને વધારે થયા કરે છે, "धण्णेणं बामि" भारे या भि, परिभ, भेय ने परि ४५३५ या२ ५४ा२र्नु धन १५तु य छ, "धष्णेणं वट्टामि" मारे त्यांना पतु य छे. શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩
SR No.006317
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages933
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size52 MB
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