________________
प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३ उ. १ सनत्कुमारदेवऋदिनिरूपणम् १४५ मानिकादिपट्टमहिषापर्यन्तदेवाशुपरि स्वाधिपत्य - स्वामित्व -भर्तृत्वादिकमपि पूर्ववदेव, केवलं पूर्वदेवापेक्षया विशेषतामाह-'नवरं' विशेषः पुनरेतावानेव यत् स विकुणाशक्त्या वैक्रियसमुद्घातेन समवहत्य निर्मित निजात्मनानारूपैः 'सातिरेगे' सातिरेकान् इति साधिकान् इत्यर्थः 'चत्तारि' चतुरः केवलकप्पे' केवलकल्पान् संपूर्णान् , 'बूदीवे दीवे' जम्बूद्वीपान द्वीपान पूरयितु समर्थः, । 'एवं' तथैव 'भलोए वि' ब्रह्मलोकेऽपि अर्थात् ब्रह्मलोकदेवस्यापि समृद्धयादिकं स्वसामानिकायुपरि स्वाधिपत्यादिकमपि पूर्ववदेव बोध्यम् , 'नवरं' विशेपस्तु अयमेव यत् स ब्रह्मेन्द्रः तदीयसामानिकादिदेवाश्च विकुर्वणाशक्तया वैक्रियजानना चाहिये । यद्यपि अपने सामानिक देवों से लेकर परिवार सहित अग्रमहिषियों तक के ऊपर माहेन्द्रका आधिपत्य स्वामित्व भर्तृत्व आदि कुछपूर्व के जैसा ही है-परन्तु फिर भी पूर्व देवों की अपेक्षा इसमें जो विशेषता है वही 'नवरं' इस पद द्वारा यहां प्रकट की गई-जो इस प्रकार से है-माहेन्द्रकल्पका इन्द्र विकुर्वणाशक्तिसे वैक्रिय समुद्धात करके निर्मित अपने नाना रूपों द्वारा 'मातिरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबूद्दीवे दीवे' कुछ अधिक चार संपूर्ण जंबूरोपों को भर सकने में समर्थ हो सकता है। ‘एवं' इसी तरह से 'बंभलोए वि' ब्रह्मलोक का जो इन्द्र हैं उसके विषय में भी जानना चाहियेवह भी समृद्धिशाली है-अपने सामानिक देवों आदिके ऊपर वह भी स्वाधिपत्य आदि रखता हुआ दिव्य भोगोंको भोगता रहता है परन्तु इस वर्णन में और पूर्वके इन्द्रादि कों के वर्णन में विशेषता विकुर्वणा
शक्ति को लेकर इस प्रकार से है--ब्रह्मलोकका इन्द्र तथा उसके सामाપ્રમાણે જ સમજવું છે કે સામાનિક દેવો ત્રાયશ્ચિશકો લેકપલે અગ્ર મહિષાઓ ઉપરના આધિપત્ય, સ્વામીત્વ આદિનું વર્ણન ઈશાનેન્દ્ર જેવું જ છે, તે પણ માહેન્દ્રકલ્પના ઈન્દ્રના વિદુર્વણશકિતમાં જે વિશેષતા છે તે “નવર પદ દ્વારા પ્રકટ કરી छे, ते विशेषता नीय प्रभा - "सातिरेगे चत्तरिकेवलकपणे जंबूदीवे दावे" મહેન્દ્રકલ્પનો ઈન્દ્ર પોતાની વિધુર્વણ શક્તિથી વક્રિય સમુઘાત કરીને વિવિધ રૂપનું નિર્માણ કરીને, તે રૂ વડે ચાર સંપૂર્ણ જંબુદ્દીપ કરતાં પણ વધારે જગ્યાને भरी शान समय छे. एवं बंभलोए वि" मी ४६५ना छन् (१ ५१ એમ જ સમજવું. તે પણ ઈશાનેના જેવી જ સમૃદ્ધિ વગેરથી યુક્ત છે. તે પણ તેના સામાનિક દેવ આદિ પર આધિપત્ય ભેગવે છે. પણ તેની વિમુર્વણ શકિતમાં
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૩