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प्रमेयचन्द्रिका का श० २ उ० ३ सू०१५ मृषावादिस्वरूपनिरूपणम् ९५१ 'णाणादुमखड़मंडित उद्देसे ' नानाद्रुमखण्डमण्डित उद्देशः यस्य प्रान्तभूमिरनेकविधवृक्षसमुदायेन व्याप्ता — सस्सिरीए ' सश्रीका-शोभायुक्तः 'जावपडिरूवे' यावत् प्रतिरूपः अत्र यावत् पदेन प्रासादीयदर्शनीयम् अभिरूपम् इत्येतेषां ग्रहणं भवति । तेन असौ ह्रदः प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपः प्रतिरूपोऽस्ति । 'तत्थ णं बहवे उदाला बलाहया संसेयंति' तत्र खलु बहव उदारा बलाहकाः संस्वेदन्ते उदारा कतिविस्तीर्णाः बलाहका मेघाः संस्वेदन्ते= उत्पादाभिमुखी भवन्ति 'समुच्छंति ' समूर्छन्ति उत्पद्यन्ते ' वासंति ' वर्षन्ति 'तव्वइरित्ते य' तद्वयतिरिक्तश्च तत् तस्मात् इदपूरणात् अतिरिक्त उत्कलित इत्यर्थः ‘णमिति खलु सया' सदा ' समिओ' समितः तस्मात् इदात् 'उसिणे उसिणे आउकाए अभिनिक्रवमइ' उष्णउण्णोऽप्कायः अभिनिष्क्रामति-अभिनिःस्रवति-तलहदेशोपरिनिर्गच्छति-क्षरतीत्यर्थः 'से कहमेअं भंते एवं तत् किमेतद् भदन्त ! एवम् ?अन्यतीर्थिक मविक्खंभेणं) इसकी लम्बाई चौडाई अनेक योजनों तक की है। ( णाणादुमखंडमंडिय उद्देसे ) इसकी प्रान्त भूमि अनेकविध वृक्षसमूहों से व्याप्त है (सस्सिरीए) यह शोभा सम्पन्न है । (जाव पडिरूवे ) यावत् दर्शकजनों को इसे देखकर बहुत अधिक संतोष होता है । (तत्थ णं बहवे उदाला बलाहया संसेयंति ) वहाँ पर अनेक अतिविस्तीर्ण मेघ उत्पन्न होते रहते हैं, (समुच्छंति ) कितनेक उत्पन्न होते रहते हैं ( वासंति ) कितनेक मेघ वहां पर बरसते हैं । ( तव्वइरित्ते य) हूद के पूरे भर जाने के बाद अतिरिक्त ( आउकाए जल ( समिओ) उस हूद से (सया) हमेशा ( अभिनिक्खमइ ) झरना रूप से बाहर निकल ता- झरता रहता है । यह जल ( उसिणे
आयामविखंभेणं " भनेर योनमा तनी मा भने ५ . " णाणादुमखंडमंडियउद्देसे" तेनी सभीपनी प्रदेश मने प्रा२न वृक्ष समू
थी व्याप्त छ. “ सस्सिरीए" ते शालासपन्न छ. “ जाव पडिस्वे" (यावत ) । तेन न ने सत्यत सतिष पामे छे. “ तत्थ गं बहवे उदाला वलाया संसेयंति” त्यो भने मति विस्ती मे उत्पन्न थया ४२ छ. " समुच्छंति " टस भेध अत्पन्न थतi २३ छ, " वासंति. " टा४ मे तना ५२ १२सतi २९ छ. “ तवइरित्तेय" ते ४ाशय पूरे ५३ मारा गया ५छी पधारानु “ आउकोए " " समिओ" ते ४ाशयमांथी "सया" भेश “ अभिनिक्खमइ” अ२६५। ३ महा२ नीजीने पतु २ छ त “ उसिणे उसिणे " मई ११ १२८ २९ छ. “से
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨