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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ० ४ सू० १५ भूषावादिस्वरूपनिरूपणम्
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न्ति व्युत्क्रामन्ति च्यवन्ते उत्पद्यन्ते तद्वयतिरिक्तोऽपि च सदासमितमुष्ण उष्णो कायोऽभिनिस्रवति - एष गौतम ! महातपोपतीरप्रभवः प्रस्रवणस्य अर्थः प्रज्ञप्तः तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति ॥ - १५ ॥
और न इस जैसा सुन्दर वहां और कोई दूसरा झरना है । ( पडिरूवे ) दर्शकजनों को इसे देखने से बहुत अधिक सन्तोष मिला है । (तस्थ गं बहवे उसिणजोणियाजीवा य पोग्गला य ) उस झरने में अनेक उष्ण योनीवाले जीव तथा पुद्गल ( उदमत्ताए वक्कमंति, विउक्कमंति, चयंति, उवचिज्जति) जलरूप से उत्पन्न होते रहते हैं, नष्ट होते रहते हैं। नष्ट होकर उत्पन्न होते रहते हैं । (तव्वइरितेवि यणं सयासमियं उसि णे उसिणे आउयाए अभिनिस्सवई ) उस हद में से अतिरिक्त गरम गरम पानी सदा चारों ओर से बाहर झरता रहता है । ( एस णं गोय मा ! महा तवावतीरप्पभवे पासवणे) हे गौतम! यह (महातपोपतीरप्रभव) नामका झरना है ( एस णं गोयमा ! महातवोवतीरप्पभवस्स पासव
स अट्ठे पत्ते ) और हे गौतम ! यह ( महातपोपतीरप्रभव) झरने का अर्थ है । ( सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसह ) हे भदन्त ! आपने कहा है वह इसी प्रकार से है है भदन्त ! जैसा आपने कहा वह इसी प्रकार से है । ऐसा कहा कर गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदना की नमस्कार किया
अ अ नथी, (पडिरूवे ) तेने लेने हर्श अने अत्यंत संतोष थाय छे ( तत्थ णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्गला य ) ते अरणामां भने उष्णुयानिवाजा कुवे। तथा युद्धसो ( उदमत्ताए, वक्कमति, विउक्कमति, चयंति, उवचिज्जति ) ४३ये उत्पन्न थतां रहे छे, अने नाश यामीने उत्पन्न थतां २ छे. (वरिते वि य णं सयासमियं उसिंणे उसिणे आउयाए अभिनित्सवई) તે જળાશય પૂરે પૂરૂં' ભરાઇ જાય ત્યારે ગરમ ગરમ પાણી સદા ચારે તરફ थी महार वहेतु रहे छे ( एस णं गोयमा ! महातवोवती रपभवे पासवणे ) डे गौतम ! ते “ भातपोयतीरप्रभव ” नामनुं अरगु छे. ( एस णं गोयमा ! महावीर भवस्स पासवणस्स अटूठे पन्नत्ते ) हे गौतम! मा ( (पेशक्त ) "भड्डातपो यतीरप्रभव" अरणानो अर्थ छे. (सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ) डे लहन्त ! आये उद्या प्रमाणे छे. डेलहन्त ! આપનું કથન યથાર્થ છે. આ પ્રમાણે કહીને ગૌતમસ્વામીએ શ્રમણ ભગવાન
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨