________________
प्रमेयन्द्रिका टीका श० २३०५ सू०१५ मृषावादिस्वरूपनिरूपणम्
९४७
आयः (अधः) प्रज्ञप्तः अनेकानि योजनानि - आयामविष्कंभेण नानाद्रुमषंड मंडि तोद्देशः सश्रीको यावत् प्रतिरूपः तत्र खलु बहवे उदारा बलाहकाः संस्वेदन्ते-संमूच्छन्ति वर्षान्ति तद्वयतिरिक्तश्च खलु सदासमितउष्णः उष्णः अप्कायोऽभिनिस्रवति तत्कथमेतद् भवन्त ! एवम् - गौतम । यन्तु खलु ते अन्ययूथिका एवमाख्यान्ति यावत् येते एवमाख्यान्ति मिथ्याते एवमाख्यान्ति यावत् सर्वं ज्ञातव्यम् - अहं पुन एगे हर अप्पे (अधे) पन्नत्ते) बड़ा भारी एक जल की उत्पत्ति का स्थानभूत अथवा अधनामका हूद (द्रह) है (अणेगाइ जोयणाई आयामविक्खंभेणं) इसकी लंबाई चौडाई अनेकयोजनों तक की है। (णाणादूमखंड मंडित उद्दे से ) इस हद के आगे का भाग अनेक वृक्षों के समूह से सुशोभित है । ( सस्सिरीए जाव पडिरूवे ) इसकी शोभा निराली है यावत् यह देखने वालों की आंखों को अनुपम आनंद प्रदान करता है । ( तस्थणं बहवे उराला बलाहया संसेयन्ति ) वहां पर अनेक उदार - विशाल - मेघ उत्पन्न होते रहते हैं, ( संमुच्छनि ) कि तनेत उसमें बरसते रहते हैं । ( तव्वइरिते य णं सया समिओ उसिने उसि आउका अभिनिस्सवइ ) उस हद में से अतिरिक्त उस जल के सिवाय गरम गरम जलकाय जल हमेशा चारों ओर झरने के रूप से झरता रहता है । ( से कहमेयं भंते ! एवं ) सो हे भदन्त । अन्ययूथिकों का इस प्रकार का कथन क्या सत्य है ? ( गोयमा ) हे गौतम! ( जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव जे ते एवमाइक्खंति
""
66
बहवे
एत्थ ण महं एगे हरए अप्पे " अधे " पन्नत्ते " भजनी उत्पत्तिमा स्थान ३५ अथवा अध नामनुं- मेह ( सरोवर ) छे. " अणेगोई जोयणाई आयाम विक्खमेण " ते मने यन्न सांगु होलु छे. जाणा दुमखंड मंडित उसे ” તે હદના આગળના ભાગ વિવિધ વૃક્ષેાના સમૂહથી શાભાયમાન છે. " सस्सिरीए जाव पडिरूवे " तेनी शांला अनोमी छे. ते नारनी मांगाने अनुयभ मानहं आये छे. “ तत्थणं उदाला वलाहया संसेयति " त्यां मन उद्वार (विशाण ) भेध उत्पन्न रहे छे, “संमुच्छति " उटसा उत्पन्न थर्ध थाइया लय छे, “वासंति" डेंटला तेमां वरसतां रहे छे. " तव्व इरिते य ण खया समिओ उसिणे उसिणे आउकाए अभिनित्सवइ " न्यारे ते જળશય પૂરે પૂરૂ ભરાઇ. જાયછે. ત્યારે તે સરેાવરમાંથી ગરમ ગરમ જળકાય भज-हमेशा न्यारे तर राना ३ये वतुं रहे छे. " से कहमेय भते एवं " हे लहन्त ! मन्ययुथिअनुं ते प्रहार उथन शु सत्य छे ? " गोयमा ! " डे गौतम ! " जं णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव ते एवमा इक्वंति
थता
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨