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भगवतीसूत्रे वतीरप्पभवे पासवणो एसणं गोयमा ! महातवोवतीरप्पभवस्स पासवणस्स अट्टे पन्नत्ते, सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ ॥ सू०१५॥
छाया-अन्ययूथिकाः खलु भदन्त ! एवमाख्याति भाषन्ते प्रज्ञापयन्ति प्ररूपयन्ति एवं खलु राजगृहस्य नगरस्य बहिर्वैभारस्य पर्वतस्याधोऽत्र महानेको हुद
पूर्वप्रकरण में श्रमण जनों की उपासना करने का फल परम्परा से मोक्ष है यह कहा गया है सो ऐसा फल जीव को हरएक साधु की सेवा करने से प्राप्त नहीं होता है, किन्तु जो विलक्षण गुणवाले सच्चे साधु हैं उनकी सेवा से ही प्राप्त होता है, क्यों कि जो सच्चे साधु होते हैं वे आहेत्प्रवचन के अनुसार अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति किया करते हैं और सत्यवादी होते हैं-इनसे अतिरिक्त साधु ऐसे नहीं होते हैं तथा मृषावादी होते हैं-इसलिये मृषावादी साधुओं का स्वरूप दिखाने के लिये सूत्रकार कहते हैं-(अन्न उत्थिया णं भंते) इत्यादि ।
सूत्रार्थ-( अन्न उत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति, भासंति, पनवेति, पहवेंति, ) हे भदन्त ! अन्ययूथिक ऐसा कहते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं, ऐसी प्ररूपणा करते हैं (एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स पव्वयस्स अहे) राजगृह नगर के बाहर वैभार पर्वत के नीचे ( एत्थ णं महं
આગળના પ્રકરણમાં એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું કે શ્રમની ઉપાસનાનું ફળ એક્ષપ્રાપ્તિ છે. પણ એવું ફળ જીવને દરેક સાધુની સેવાથી પ્રાપ્ત થતું નથી પણ વિલક્ષણ ગુણવાળા સાચા સાધુઓની સેવાથી જ તે પ્રાપ્ત થાય છે. કારણ કે સાચા સાધુઓ અહંત પ્રવચન અનુસાર જ પોતાની પ્રત્યેક પ્રવૃત્તિ કરનારા અને સત્યવાદી હોય છે. પણ તે સિવાયના સાધુઓ એવા હોતા નથી, તેઓ મૃષાવાદી હોય છે તેથી આ પ્રકરણમાં એવા મૃષાवाही साधुमानु २५३५ मतान्यु छे( अन्न उत्थियाण भंते ! त्याल।
सूत्रार्थ-"अन्न उस्थिया णं भंते ! एवमाइक्खति भासंति पनवेति' परूवे ति" ३ महन्त ! मन्ययूथि (अन्यमतही) मे ४३ छे, मे भाषण ४२ छ, मेवी प्रज्ञापन। ४२ छे, मेवी ५३५ ४२ , (एवं खलु रायगिहस्स नयरस्स बहिया वेभारस्स पन्बयस्स अहे" सग नगरनी पडा२, वैमा२५ तनी नीय
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨