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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श०२ उ०५ सू० १३ पापित्यीयविहारोत्तरनिरूपणम् ९२३ पृष्टानि-पार्श्वजिनशिष्याः तुङ्गिकायानगाः बहिः प्रदेशे पुष्पवतिके चैत्ये समवश्रिताः शिष्याः तेषां समीपे तुङ्गिका नगरीकाः श्रावकाः वक्ष्यमाणप्रकारान् पृष्टवन्तः इति भावः किं पृष्टवन्त इत्याह हे भदन्त-इति संबोध्य-स्थविरान् पृच्छति "संजमेणं भंते किं फले " संयम: खलु किं फलः हे भदन्त संयमस्य किं फलं भवति " तवेणं मंते किं फले " तपः किं फलं हे भदन्त तपसः किं फलं भवति " तएणं ते थेरा भगवन्तो ते समणो वासए एवं वयासी" ततः खलु ने-स्थविराः श्रमणोपासकान् एवं वक्ष्यमाणरीत्या अवादिषुः-उत्तरं दत्तवन्तः " संजमेणं अज्जो " संयमः खलु आर्याः ! हे आर्याः ! " अणण्हयफले " अनास्रवफलः नवकर्मानुपादानं फलम् 'तवे वोदाणगये हैं, तात्पर्य यह कि-पार्थ नाथ प्रभु के सन्तानीय स्थविर भगवन्त तुङ्गिका नगरी के बाहिरी प्रदेश में स्थित पुष्पवतिक चैत्य में आये हुए हैं। उनके पास तुंगिका नगरी के निवासी श्रावक गये और उन्हों ने उनसे आगे प्रगट किये जाने वाले प्रश्नों को पूछा, वे प्रश्न कौन से हैंसो ही प्रकट किया जाता है-(संजमे णं भंते ! किं फले ) स्थविरों को भदंत ! इस तरह से संबोधित करते हुए उन श्रावकों ने उनसे पूछाहे भदंत ! संयम का क्या फल होत है। ? (तवेणं भंते ! किं फले ) हे भदन्त ! तप का क्या फल होता है ? इस प्रकार जब श्रावकों ने उनसे पूछा-(तएणं) तब (ते थेरा भगवंतो ते समोरासए एवं वयासी) उन स्थविर भगवन्तों ने उनसे इस प्रकार कहा-अर्थात्-उनके प्रश्नों का इस प्रकार से उत्तर दिया ( संजमेणं अज्जो अणण्यफले ) हे आर्यो! संयम अनास्रवरूप फलवाला होता है । अर्थात् संयम की आरा. धना करने से जीव नवीन कर्मों का बंध नहीं करता है ( तवे वोदाणકહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે તુગિકા નગરીની બહાર આવેલા પુષ્પવતિ ચૈત્યમાં પાર્શ્વનાથ ભગવાનના પ્રશિષ્ય પધાર્યા હતા. તંગિકા નગરીના શ્રાવકે તેમની पासे या उता. तेभो तभने नये प्रमाणे प्रश्नो पूच्या उता “संजमेणं भंते किं फले" महन्त ! सयभनुशुण भणे छ ? "तवेणं भते! किं फले? है महन्त ! तपर्नु शु डाय छ ? “तएणं " श्रावना ते प्रश्न प्रश्नो सानणाने "ते थेरा भगवंतो ते समणावासए एवं वयासी" ते स्थविर माता तेभने मा प्रमाणे उत्त२ २माये! " संजमेणं अज्जो अणण्हयफले" उ माया ! સંયમનું અનાસવરૂપ ફળ મળે છે. એટલે કે સંયમની આરાધના કરવા જીવ नव भनि। म साधत नथी. " तवे वोदाणफले " तपतुं व्यवहान શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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