________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका २० २ ० ४ सू०११ धर्मोपदेशनानिरूपणम् ८९५ णं कालियपुत्ते नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासो' तत्र खलु कालिकपुत्रोनामस्थविरस्तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् । 'पुवतवेणं अज्जो देवादेवलोएमु उववज्जंति' पूर्वतपसा हे आर्याः । देवा देवलोकेषु उत्पद्यन्ते । 'तत्य णं मेहिले नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी ' तत्र खलु मेधिलो नामस्थविरस्तान श्रमणोपासकान् एवमवादीत्-'पुव्वसंजमेणं अज्जो देवादेवलोएसु उबवज्जति' होता है। सो क्या यह उनका वहां पर जन्म निष्कारणक माना जावेगा इस तरह का श्रमणोपासकों का प्रश्न सुन करके ( तत्थणं कालियपुत्ते नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी) उन स्थविर भगवन्तों के बीच में जो कालिक पुत्र नामके स्थविर थे उन्हों ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार से उत्तर दिया-(पुव्व तवेणं अज्जो देवा देवलोएस्सु उववज्जति ) हे आर्यो! पूर्वतपस्या के प्रभाव से देव देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य कहने का यह है कि तप और संयम किसी भी आयु के बंध के कारण नहीं होते निर्जरा के ही कारण होते हैं-परन्तु फिर भी जो जीव इनके प्रभाव से देवलोक की आयु का बंध कर वहां जन्म लेते हैं उसका कारण राग है-राग युक्त तप और संयम देवगति के प्रति कारण बन जाते हैं । वीतराग के तप और संयम देवगति के कारण न होकर मुक्ति के ही कारण होते हैं। पूर्वतप का तात्पर्य यही है कि सरागावस्था में जो तपस्या की जाती है वह क्यों कि यह वीतरागावस्था की अपे. क्षा पूर्वकालभाविनी होती है । (तत्थ णं मेहिले नाम थेरे ते समणो થાય છે. તે તેઓ શા કારણે દેવકમાં ઉત્પન્ન થાય છે? ___AL २ ते श्रमासाना प्रश्न सianta ( तत्थ ण कालियपुत्ते नाम थेरे ते समणोवासए एवं क्यासी) ते स्थविमान लिपुत्र नामाना स्थविरे ते श्रभासने २प्रमाणे उत्तर माल्यो- ( पुव्व तवेण अज्जो देवा देवलो एसु उववज्जति ) मार्या ! पूर्व तपस्याना प्रभारथी हे। सभा उत्पन्न થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે તપ અને સંયમ કઈ પણ આયુબંધને માટે કારણરૂપ હતાં નથી, પણ તે તે નિર્જરાનાં કારણરૂપ બને છે. છતાં પણ જે છે તેમના પ્રભાવથી દેવલોકના આયુને બંધ કરીને ત્યાં દેવપણે ઉત્પન્ન થાય છે, તેનું કારણ રાગ છે–રાગયુક્ત તપ અને સંયમ દેવગતિનાં કારણભૂત બને છે. વીતરાગનાં તપ અને સંયમ દેવગતિનાં કારણભૂત નહીં બનતાં મુક્તિ નાં કારણરૂપ બને છે, પૂર્વતપ એટલે સરાગાવસ્થામાં કરાતી તપસ્યા કારણ કે ते पीतथा ४२di पूसलाविनी डाय छे. (तत्थण मेहिले नाम थेरे
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨