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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ० ५ सू० १० पापित्यीयस्थविरवर्णनम् ८६९ मनस एकत्वी-करणेन५, यत्रैव स्थविरा भगवन्तस्तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिण कुर्वन्ति. कृत्वा यावत् त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपासते ।।सू.८ ।।
टीका-'तएणं तुंगियाए नयरीए' ततः खलु तुङ्गिकायाः नगाः सिंघाडग तियचउक्कचच्चर चउम्मुहमहापहपहेसु 'शगाटकत्रिकचतुष्कचत्वरचतुर्मुख महापथपथेषु । तत्र शृङ्गाटक-'सिंघाडा इति भाषाप्रसिद्ध जलजं फलं, तदाकारस्थानं त्रिकोण मित्यर्थः, त्रिकं-मिलितत्रिमार्गा स्थानम् , चतुष्क=यत्र चत्वारो मार्गामिलिताः उत्तरासंग करना अर्थात् यतना के लिये वस्त्र को मुखपर रखना३, (चक्खुफासे अंजलिप्पग्गहेणं ) स्थविर भगवंतो के दिखते ही दोनों हाथों को जोडना ४ (मणसो एगत्तीकरणेणं ) तथा मनको एकाग्र करना। इस प्रकार पांच अभिगमों से युक्त होकर वे सब (जेणेवरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति ) जहां स्थविर भगवंत थे वहां आये। (उवागच्छित्ता) वहां आकर उन्होंने ( तिक्खुत्तो) तीन वार (आयाहिणपयाहिणं करेइकरित्ता) उनको प्रदक्षिणा पूर्वक यावत् वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके (जाव तिविहाए पज्जुवासणार पज्जुवासंति ) त्रिविध पर्युपासना से पर्युपासना करने लगे ।। १० ।।
टीकार्थ - (नएणं तुगियाए नयरीए) इसके बाद तुंगिका नगरी के (सिंघाडगतिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु) सिंघाडे के आकार वाले मार्ग में अर्थात्-त्रिकोण वाले मार्ग में, त्रिक-जहां पर तीन मार्ग मिलते हैं वहां, चतुष्क-जहां पर चार मार्ग मिलते हैं वहां, चोराहे इयतना ५ भाटे भु५५२ १२ राम. “ चक्खुफासे अंजलिप्पग्गहणे " (४) स्थविर मतान नेतात मन्नाथ 341, भने "मणसो एगत्ती करणेण) (५) भनन मा ४२. २मा प्रमाणे पांय मलिशमाथी युत धन तया सधा " जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति " यां स्थविर मगत u त्या माव्या. “ उवागच्छित्ता " त्या मापान तेभो “तिक्खुतो" त्रशु पा२ " आयोहिण पयाहिण करेइ करिचा" प्रक्षिा पू' भने वडा नमः४१२ ४ा. वया नभा२ ४रीने "जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति" त्रिविध पथुपासनाथी ५युपासना ४२१॥ साया ॥ सू०१ ॥ ___ -(तएण) त्या२ मा (तुगियाए नयरीए ) तु नारीना (सिंबडगतिय-च उक्क-चच्चर-चउमुह-महापहपहेसु ) शिना मारना भाग भां-मेटले लिया भागमा ( त्रिक) न्यi a] मार्गा भगता डाय तेवा स्थानमा, यतु४- यां या२ भार्ग भजता डाय त योभ, ( चत्वर)
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨