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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२ उ० ५ सू०९ पापित्यीयस्थविरवर्णनम्
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हप्पहाणा निच्छयप्पहाणा मद्दवप्पहाणा अज्जवष्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा एवं विज्जा-मंत्त-वेय-बंभ-नय-नियम-सच्च-सोय-पहाणा चारुप्पण्णा सोहिप्पहाणा अणियाणा अप्पुस्सुया अबहिल्लेस्सा सुसामण्णरया अच्छि६पसणवागरणा" एषां पदानां संग्रहः । तत्र " तवप्पहाणा" तपः प्रधानाः तपः अनशनादिकं द्वादशविधं तेन प्रधानाः “ गुणप्पहाणा " गुणप्रधानाः गुणासंयमगुणस्तैः प्रधानाः अत्र गुणपदेन संयमग्रहणम् । तपः संयमग्रहणश्च तपः संयमयोः प्रधानतया मोक्षाङ्गताभिधानार्थम् । तथा " करणप्पहाणा" करणप्रधानाः, करणं -क्रियते चरणस्य पुष्टिरनेनेति करणम् – उत्तरगुणरूपं पिण्डविशुद्धयादिसप्तति भेद भिन्नम् तथाहि। मिलती है उस दुकानका नाम कुत्रिकापण है। इसमें कु. त्रिक, आपण ऐसे ये तीन शब्द हैं। कु-पृथिवी, त्रिक-तीन, आपण दुकान । सो जिस प्रकार कुत्रिकापण से हरेक आवश्यकीय वस्तु मिल जाती है, उसी प्रकार से इन स्थविर भगवंतों से भी हरेक प्रकार का आत्मकल्याण करने का बोध मिलता था। यहां यावत् पद है, यावत् पदसे संगृहीत पदों का अर्थ इस प्रकार से है-तपप्रधान-अनशन आदि बारह प्रकार के अन्तरङ्ग बहिरङ्ग तपों से ये प्रधान थे, गुणप्रधान-संयमगुणों से ये प्रधान थे, यहां गुणपद से संयम का ग्रहण हुआ है, तप और संयम का जो यहां ग्रहण किया गया है सो तप और संयम प्रधानरूप से मोक्ष के कारण हैं इस बात को प्रकट करने के लिये किया गया है। करणप्रधान-चारित्र की पुष्टि जिससे की जाती है उसका नाम करण है। यह करण उत्तरगुणरूप है और पिण्डविशुद्धि आदि इसके सत्तर (७०) भेद होते हैं। जो इस प्रकार से हैं'त्रिपy ' ४ छ. 3 + त्रि: + ५४ = त्रि५९. ॐ = पृथ्वी, dिs = ત્રણ, આપણુ–દુકાન. જેવી રીતે કુત્રિકાપણુમાંથી દરેક ઉપયોગી ચીજો મળી શકે છે એજ પ્રમાણે એ સ્થવિર ભગવંતે પાસેથી પણ આત્મકલ્યાણ કરવાને १३४ रन माय भगतो तो. मी " यावत् "( पन्त) ५६ ॥२॥ नायनां पहो अY 3शयां छ-तपप्रधान तेथे! मनशन माहि मा२ ५४२i मातरि तय माह्य तपथी युत उता, "गुणप्रधान" सयम शुणेथी युत હતા. અહીં (ગુણ) પદથી ( સંયમ) ગ્રહણ કરાય છે જે તપ અને સંયમને અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે તે તપ અને સંયમ મોક્ષના મુખ્ય સાધને गाय छ. "करण प्रधान " यात्रिनी पुष्टि ना द्वा२। ४२राय छ तेन ४२. ણ કહે છે. તે કરણ ઉત્તરગુણરૂપ છે અને પિંડ વિશુદ્ધિ આદિ તેના ૭૦ ભેદ છે. જે ભેદે આ પ્રમાણે છેभ १०८
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨