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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२उ०५० १ अन्यमतनिरासपूर्वकस्वमतनिरूपणम् ७२९ समये स्त्रीवेदं वेदयति. स्त्रीवेदस्योदयेन नो पुरुषवेदं वेदयति पुरुषवेदस्योदयेन नो स्त्रीवेदं वेदयति. एवं खलु एको जीव एकेन समयेनैकं वेदं वेदयति तद् यथा स्त्रीवेदं वा पुरुषवेदं वा. स्त्री स्त्रीवेदेनोदीर्णन पुरुषं मार्थयते. पुरुषः पुरुषवेदेनोदीर्णेन स्त्रियं प्रार्थयते द्वावपि तौ अन्योन्यं प्रार्थयते. तद् यथा स्त्री वा पुरुषं पुरुषो वा स्त्रियम् ॥ मू०१॥ समय में वह पुरूष वेद का वेदन करता है-उस समय में स्त्री वेद का वेदन नहीं करता । ( इत्थियवेयस्स उदएण नो पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स उदएण नो इस्थियवेएं वेएइ ) तथा स्त्रीवेद के उदय से पुरुषवेदका वेदन नहीं करता और न पुरूषवेदके उदयसे स्त्रीवेदका वेदन नहीं करता है । ( एवं खलु एगे जीवे एगेण समएणं एग वेयं वेएइ) इस तरह एक जीव एक समय में एक वेद का वेदन करता है। (तंजहा-इत्थियवेयं वा पुरिसवेयं वा) या तो स्त्रीवेदका वेदन करता है या पुरुषवेद का वेदन करता है । ( इत्थी इत्थीवेएणं उदिण्णेणं पुरिसं पत्थेइ, पुरिसो पुरिसवेएणं उदिण्णेणं इत्थिं पत्थेइ) स्त्री स्त्रीवेद के उदय होने पर पुरुष की अभिलाषा करती है और पुरुषवेद के उदय में पुरुष स्त्री की अभिलाषा करता है। इस तरह ( दो वि ते अण्णमण्णं पत्थेति-तंजहा-इत्थीवा पुरिसं पुरिसे वा इत्थि) स्त्री और पुरुष दोनों ही स्त्रीवेद और पुरुषवेद के उदय में एक दूसरे की चाहना किया करते हैं-स्त्री पुरुष की और पुरुष स्त्री की ॥ सू० १ ॥ वेएइ, नो समयं इत्थियवेयं वेएइ ) म न्यारे ते पुरुषवेनु वेहन ४२ते। डाय छे त्यारे ते स्त्रीवहन वहन ४२तो नथी, (इत्थियवेयस्स उदएण नो पुरिसवेय' वेएइ, पुरिसवेयस्स उदएण नो इत्थियवेय वेएइ) तथा सीवहना ઉદયથી પુરુષવેદનું વેદન કરતા નથી અને પુરુષવેદના ઉદયથી સ્ત્રીવેદનું वहन ४रती नयी. (एवं खलु एगे जीवे एगेण समएण एग चेय वेएइ माते मे ७१ मे समय में वेनु वहन ४रे छ-( तजहा इस्थियवेयं वा पुरिसवेय' वा ) iता श्रीवहन वहन ४२ छ तो पुरुषवेनु बेहन ४२ छ. ( इत्थी इस्थीवेएण उदिण्णेण पुरिस पत्थेइ ) श्रीवहन। जय थdi श्री पुरुषनी मलिता! ४२ छ (पुरिसो पुरिसवेएणं उदिण्णेण इथि पत्थेइ ) અને પુરુષવેદને ઉદય થતાં પુરુષ સ્ત્રીને સમાગમ ઈચ્છે છે. આ રીતે ( वि ते अण्णमण्ण पत्थेति-तजहा-इत्थी वा पुरिस पुरिसे वा इत्थी) श्री मन પુરુષ બને જ સ્ત્રીવેદ અને પુરુષવેદના ઉદયમાં એક બીજાની અભિલાષા કરતા હોય છે-સ્ત્રી પુરુષની અને પુરુષ સ્ત્રીની અભિલાષા કરતા હોય છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨