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प्रमेयचन्द्रिका टीका २० २ उ० ३ सू० १ पृथिव्यादिस्वरूपनिरूपणम् ७७५ ज्ञातव्यम् । तत्र (पुढनीओ) पृथिव्यो वाच्याः। ताश्चैवम् “कइणं भंते पुढवीओ पनत्ताओ' कति खलु भदंत ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः ? इतिपृथिवीसंख्याविषयको गौतमस्य पश्नः भगवानाह-'गोयमा सत्तपुढवीओ पन्नत्ताओ' हे गौतम ! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा 'रयणप्पभा शर्करामभा वालुकाप्रभा पंकप्रभा धूमपमा तमःप्रभा तमस्तमःममा इमाः सप्त नारकपृथिव्याः प्रज्ञप्ता कथिताः " ओगाहित्ता निरया" इति अवगाह्य निरयाः, पृथिवीमवगाय कियहरे नारकावसन्तीतिवक्तव्यम् तत्र सप्तम् पृथिवीषु मध्ये या प्रथमा रत्नप्रभापृथिवीतस्याम्-अशीतिसहस्रोत्तरयोजनलक्षबाहल्यायाम. उपर्येक योजनसहस्रमवगायाधोप्येकं योजनसहस्रं वर्जगया है। इसलिये जीवाभिगम सूत्र के द्वितीय उद्देशक से ही सब कुछ नरकसंबंधि आदि विचार जानना चहिये । पृथिवी संबंध में वहां ऐसा पूछा गया है कि- (भंते ) हे भदंत ! ( कहणं पुढवीओ पन्नत्ताओ) पृथिवियां कितनी कही गई हैं ? इस प्रकार से गौतम ने जब पृथिवी की संख्या के विषय में प्रभु से पूछा-तब प्रभु ने उन्हें कहा -(गोयमा सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ ) हे गौतम ! पृथिवी सात कही गई हैं-(तं जहा) वे इस प्रकार से हैं-(रयणप्पभा ) इत्यादि-रत्नप्रभा १, शर्कराप्रभा २, बालुकाप्रभा ६, पंकप्रभा ४, धूमप्रभा५, तमप्रभा६, और सातवीं तमस्तमःप्रभा ७। ( ओगाहित्ता निरया) पृथिवी को अवगाहित करके कितनी दूर जाने पर नारक जीव रहते हैं ? इस प्रश्न का भाव इस प्रकार से है-कि-कितनी पृथिवी को छोडकर नारक जीवपृथिवी अवशिष्ट भाग में रहते हैं ? तो इसका उत्तर इस प्रकार से है-जैसे सात पृथिवीयों में से जो पहिली पृथिवी रत्नप्रभाहै वह एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी है,
જ જીવાભિગમ સૂત્રના બીજા ઉદ્દેશકમાંથી નરકે વિષે સમસ્ત વર્ણન વાંચવાનું अपामा माव्यु छे. पृथ्वी विषे मही से पूछवामा मायुं छे (भंते !) 3 महन्त, ( कइण पुढवीओ पण्णत्ताओ?) पृथ्वी की ही छ ? त्यारे भगवान महावीर गौतभस्वामीन उत्त२ मा छ (गोयमा) 8 गौतम! (सत्त पुढवीओ पन्नताओ) पृथ्वी सात ४. छे. (तं जहा ) तमना नाम । प्रभा छ-( रयणप्पभा ) त्यादि. २त्नमा, रामा, पाबुमा, ५४मला, धूमप्रमा, तभप्रमा, मने तमस्तमा प्रसा. ( ओगाहित्ता निरया ) કેટલી પૃથ્વીને છોડીને નારક છે પૃથ્વીના અવશિષ્ટ (બાકીના) ભાગમાં રહે છે ? તેને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે-સાત નરકે (પૃથવીઓ) માંથી પહેલી રત્નપ્રભા નામની પૃથ્વી એક લાખ એંશી હજાર યોજનાના વિસ્તાર વાળી છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨