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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ ० १ सू० १७ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ७४३ नमस्यित्वा एवमादिषुः । एवं खलु देवानुप्रियाणामन्तेवासी स्कन्दको नामागारः प्रकृतिभद्रका प्रकृतिविनीतः प्रकृत्युपशान्तः प्रकृति प्रतनु क्रोधमानमायालोभो मृदुमादेवसंपन्न आलीनो भद्रको विनीतः स खलु देवानुप्रियैरभ्यनुज्ञातः सन् स्वयमेव पञ्चमहावतान्यारोप्य श्रमणांश्च श्रमणीश्च क्षमयित्वा अस्माभिः साधं विपुलं पर्वतं जहां श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे वहां पर वे आये। (उवा. गच्छित्ता) वहां आकर (समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ) उन्हों ने श्रमण भगवान महावीर को वंदना की-नमस्कार किया ( वंदित्ता नमसित्ता) वंदना नमस्कार कर (एवं वयासी) फिर वे इस प्रकार से कहने लगे-( एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए णाम अणगारे पगइभद्दए पगइविणीए' पगइउवसंते' पगइपयणुकोहमाणमायालोभे) हे भदन्त ! आप देवानुप्रिय के शिष्य स्कन्दक नाम के अनगार कि जो प्रकृति से विनीत थे' प्रकृति से उपशान्त थे' प्राकृति से प्रतनु क्रोध मान, माया और लोभ वालेथे ( मिउमद्दवसंपन्ने ) प्रकृति से अत्यन्त निरभिमानी थे (अल्लीणे भद्दए विणीए) तथा तप संयम आदि अनुष्ठा. नों के करने में जो सदा तत्पर रहते थे' भद्रक थे' और विनीत थे (से णं देवाणुपिएणं अन्भणुनाए समाणे ) वे आप देवानुप्रिय से आज्ञा प्राप्त कर (मयमेव पंच महव्वयाई अरोवित्ता) अपने आप पांच महाव्रतों को आरोपितकरके (समणा य समणीओ खामेत्ता) तथा श्रमण और श्रमणियांसे (क्षमापना) खमतखामणा करके (अम्हेहि सद्धि) हमलोनोंके माथ विशता ता त्या मा०या. ( उवागच्छित्ता ) त्यां मापीन ( समणं भगव महावीर वदइ नमसइ) श्रम सावान महावीरने वा नभ२४२ ४ा. (बंदित्ता नमंसित्ता )वडा नम२४२ रीन ( एवं वयासी ) ॥ प्रमाणे ४थु- ( एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए णाम अणगारे पगइ भइए, पगइ विणीए, पगइ उवसंते, पगइपयणुकोहमाणमायालोभे) महन्त ! मा५ वानप्रिय ના શિષ્ય, સ્કન્દક નામના અણગાર કે જે ભદ્ર, વિનીત અને ઉપશાન્ત પ્રકૃતિવાળા હતા જેનામાં સ્વાભાવિક રીતે જ ક્રોધ, માન, માયા અ૮૫ प्रमाण माता , (मिमहवसंपन्ने ) सो मत्यंत निरभिमानी ता, (अल्लीणे भदए विणीए) से त५, संयम माहि अनुहाना ४२३। माटे सहा तत्५२ २ता उता, सद्र अने विनीत प्रतिवाणा उता, (से गं देवाणुप्पिएणं अमणुनाए समाणे) ते मा५ हेपानुप्रियानी मनुज्ञा सन (सयमेव पंचमहव्वयाई आरोवित्ता) पातानी ते पांय भावते! मी २ ४शन (समणा य समणीओ खामेत्ता ) साधु भने सानोमाने सभापीन
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨