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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ०१ सू०१६ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ७३५ संनिवार्य' देवसन्निपातं देवागमनस्थानं रमणीयत्वात् 'पुढवीसिलापट्टयं 'पृथिवीशिलापट्टकम् "पडिलेहेइ" प्रतिलेखयति “पडिलेहित्ता" प्रतिलेख्य प्रतिलेखनं कृत्वा 'उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ ' उच्चारप्रस्रवणभूमि प्रतिलेखयति “पडिलेहिता" प्रतिलेख्य" दब्भसंथारगं संथरइ " दर्भसंस्तारकं संस्तृणोति “थरित्ता" संस्तीर्य 'पुरस्थाभिमुहे" पोरस्त्याभिमुखः पूर्वाभिमुखः " संपलियंकनिसन्ने" संपल्यक निषण्णः पल्यङ्कासनेनोपविष्टः “करयलपरिग्गहियं " करतलपरिगृहीतम् करत. लाभ्यां परिगृहीतम् “ दसनहं " दशनखम संयोजितहम्तद्वयस्य दशनखं भवति " सिरसावत्तं " शिरस्यावर्त्तम् । शिरसि आवतः दक्षिणावर्तेनावर्तनं परिभ्रमणं मन्दगती से यतनापूर्वक चढे कि जो कडाइ स्थविर संलेख ना की विधि संपादन कराने में कुशलमति थे । वहां जाकर उन्हों ने 'मेहघणसन्निगासं देवसनिवार्य पुढवीसिलावट्टयं पडिलेहेइ ' काले मेघ के जैसे वर्णवाले-काले पृथवी शिला पट्ट की जिसकी सुन्दरता से आकृष्ट होकर जिस पर देव आते रहते थे प्रतिलेखना की । (पडिलेहित्ता ( उसकी प्रतिलेखना करने के बाद फिर उन्हों ने ( उच्चार पासवणभूमि पडिलेहेइ ) उच्चार प्रस्रवण योग्य भूमि की प्रतिलेखना की । (पडिलेहिता ) इस तरह जब उनका प्रतिलेखना का कार्य समाप्त हो चुका-तब उसके बाद उन्होंने ( दब्असंथारगं संथरइ ) दर्भ का खंथारा बिछाया (संधारित्ता) बिछाकर फिर वे उस पर (पुरत्याभिमुहे) पूर्वदिशा की ओर मुँह करके ( संपलियंकनिसन्ने ) पद्मासन से धैठ गये । बैठकर ( करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटूटु एवं वगसी) उन्हों ने अपने दोनो हाथों को इस प्रकार से अंजलि यतनापू, तेभ विक्षायद पत ५२ रोड यु". त्यांने “ मेहघणसन्निगायं देवसन्निवायं पुढवीसिलावट्टयं पडिलेहेइ ” । मेघना 24 श्याम વર્ણવાળા, અને જેની સુંદરતાને કારણે દેવે પણ આકર્ષાઈને ત્યાં આવતા डता मेवा पृथ्वी शिसा५५८४नी तेभो प्रतिमना ४२. “ पडिलेहिता" तेनी प्रतिवेगना शन “ उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ" या२ प्रखवाने योग्य भूमिनी प्रतिमना ४२१. “ पडिलेहित्ता" तेनी प्रतिमना ४शन ' दन्भसंथारगं संथरइ " हमनी सथा। मिव्या . “ संथारित्ता' सथा। मि!वीन तना ५२ " पुरत्थाभिमुहे " पूर्व हिशा त भुम परीने " सरलियंक निसन्ने" पद्मासन ४शन मेसी आय से मासने सीने “करयसपरिग्गहिय
सनहं सिरसावतं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी " तमणे तमना मन હાથ એવી રીતે જોડયા કે એક હાથના નખ બીજા હાથના નખના સ્પર્શ કરે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨