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प्रमेयचन्द्रिा टीका श. २ उ० १ सू० १५ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ७२३ देवसंनिपातम्-देवानां संनिपातः समागमो रमणीयत्वात् यत्र स देवसंनिपात स्तम् 'पुढवोसिलापट्टयं' पृथिवीशिलापट्टकं पृथिवीशिलारूपमासनं 'पडिलेहित्ता' प्रतिलेख्य 'दब्भसंथारंग संथरित्ता' दर्भसंस्तारकं संस्तीर्य 'दब्भसंथारो यगयस्स ' दर्भसंस्तारकोपगतस्य 'संलेहणाझोसणाझूसियस्स' संलेखनाजोषणाजुषितस्य संलिख्यते कृशीक्रियते शरीरं कषायश्चानया इति संलेखनतपोविशेषः तस्यास्तपोरूपायाः जोषणा=सेवनं तया जुष्टः युक्तस्तस्य 'भत्तपाणपडियाइक्खियस्स' भक्तपानप्रत्याख्यातस्य प्रत्याख्यातभक्तपानकस्य 'पाओ. वगयस्स' पादपोपगतस्य स्वीकृतपादपोपगमनसंस्तारकस्य ' कालं अणवकंखमाणस्स' कालमनवकाक्षतः उपलक्षणात् जीवितमप्यनिच्छतः 'विहारित्तए' विहर्तुम्-श्रेयइति पूर्वेण सम्बन्धः 'त्तिकद्दु ' इति कृत्वा-इति मनसि निश्चित्य जैसा कृष्णवर्णवाला है और (देवसंनिवार्य) सुन्दरता के कारण जिसपर देवों का समागम होता है उसकी 'पडिलेहित्ता' प्रतिलेखना करके 'दब्भसंथारगं' उस पर दर्भके संस्तारकको विछाऊ 'संथरित्ता' बिछाकर ' दम्भ संथारोवगयस्स संलेहणा झासणा झुसियस' मैं उस पर बैठ जाऊ और रागद्वेष से रहित बन कर मैं काय एवं कषाय को कृश करनेवाली संल्लेखना को आदर के साथ स्वीकार करूं उस समय में 'भत्तपाणपडियाइक्खियस्स' चारों प्रकार के आहार का यावज्जीव प्रत्याख्यान करूं। इस तरह 'कालं अणवखमाणस्स' मैं अपने मरण और जीवन की आशंसा से रहित हो कर पाओवगयस्स' पादपोपगमन संथारा धारण करं-तो इसी में मेरा कल्याण है । 'तिकट्टु' इस प्रकार से स्कन्दक अनगार ने धर्मजागरणा करते समय अपने मनमें वाय” त्यां यहीन ॥ मेघना १५ श्याम १४ मने ना ५२ वान। समागम थाय छे सेवा सुंदर पृथ्वीशिवापट्टनी “ पडिलेहित्ता' प्रतिवेमना शन "दब्भ संथारगं" तेना ५२ हर्मनी सरता२४ मावीश. " संथारित्ता" सस्ता२४ मिछावाने " दब्भसंथारो गयस संलेहणा झोसणा झूसियस्स" तना પર બેસીશ. અને રાગદ્વેષથી રહિત બનીને શરીર અને કષાયને ક્ષીણ કરનારી सलेमन (संथा।) मा४२ सहित 400४२ ४३२२. " भत्तपाणपडियाइक्खियस्स" यारे प्रा२ना माहारी वन पर्यन्त त्या ४२वाना प्रत्याध्यान ४रीश. ॥ श " कालं अणवकंखमाणस" हुँ भने भा। न मने भरशुनी मासा राभ्या विना “ पाओवगयस्स” पापोपगमन सथा। मी. १२ ४३ त तमा भा३ ५स्या छ. " तिक? " ५ ।२९५ ४२ती मते
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨