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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ उ०१ सू० १४ स्कन्दकचरितनिरूपणम् ७०१ उदग्गेणं, उदत्तेणं उत्तमेणं, उदारेणं महाणुभावेणं तवोकम्मेणं ) वे स्कन्दक अनगार उस उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, शोभायुक्त, उत्तम, उदात्तसुंदर, उदार बडे प्रभावशाली तप से (सुक्के) शुष्क हो गये (लुवखे ) रूक्ष हो गये। (निम्मंसे ) मांस विहीन हो गये, सिर्फ (अडिचम्मावणद्धे ) हाड चमडी से ही ढके रहे। तप के यहां जो उदार आदि अनेक विशेषण दिये हैं-उनकी सार्थकता इस प्रकार से है-स्कन्दक अनगार ने इस तप को किसी भी प्रकार की इस लोक परलोक खंबंधी आशंसा-इच्छा से प्रेरित होकर नहीं किया था अतःआशंसा से रहित होने के कारण यह तपाकर्म (उरालेणं ) प्रधान था। प्रधान होकर भी कोई २ अल्प भी होता है-अतःयह तपाकर्म ऐसा नहीं था-किन्तु अनेक वर्षांतक लगा. तार सेवित होने के कारण (विउलेणं) विपुल-विस्तृत था । कोइ २ विपुल ऐसा भी होता है कि जिसमें गुरुमहाराज की अनुमती नहीं होती, अथवा-जिसके प्रारंभ करने में विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती है-तो इसके लिये सूत्रकार कहते हैं कि यह तप कर्म ऐसा नहीं था किन्तु (पयत्तेणं) गुरु महाराज द्वारा दिया हुआ और विशेष प्रयत्न द्वारा साध्य था। अथवो ( पयत्तण) की संस्कृत छाया (प्रयत्नेन) उदारेण महाणुभावेण तवोकम्मेण ) २४६४ मा२ ते २, विपुल, प्रहत्त प्रथहीत ४८यारी, शिव३५, धन्य३५, भाग३५, शमायुक्त, उत्तम, हात्त, सु२, १२ भने अतिशय प्रसाणी तपथी ( सुक्के लुक्खे ) शरीरे शु४ तथा रुक्ष थ-5 गया (निम्मंसे) तमनु शरी२ मांस त थ यु. (अद्विचम्मावणद्धे ) मन (3 अने यामीन भामा २ हेमा सयुं. હવે (ઉદાર) આદિ વિશેષણની સાર્થકતા બતાવવામાં આવે છે સ્કન્દક અણગારે આલેક કે પરલોકની કઈ પણ પ્રકારની આકાંક્ષાથી પ્રેરાઈને તે તપ કર્યું ન હતું આ રીતે નિઃસ્વાર્થ ભાવે થયેલું હોવાને કારણે તેને માટે
જવામાં આવેલું (ઉદાર ) વિશેષણ સાર્થક છે. તે તપ સામાન્ય ન હતું. सगातार आने वर्षा सुधा तेनी माराधना ४२ ती ते १२ ते ( विउलेण) વિપુલ–વિસ્તૃત હતું. કઈ કઈ વિપુલ તપ એવું હોય છે કે જેમાં ગુરુમહારાજની અનુમતિ મળી હતી નથી, અથવા જેને પ્રારંભ કરવામાં વિશેષ પ્રયત્નની જરૂર રહેતી નથી. પણ સ્કન્દક અણગારનું તપ એવું ન હતું. તે त५ ते (पयत्तण) गुरुमडा२द्वारा हवामां मावतु मन विशेष प्रयत्न वा साध्य तु मया ( पयत्तेण) नी संस्कृत छाया (प्रयत्लेन)
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨