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प्रमैयचन्द्रिा टीका श. २ उ० १ सू० १३ स्कन्दकारितनिरूपणम् ६५९
अतएव 'गुत्ते ' गुप्तः पूर्वोक्तमनोगुप्त्यादि युक्तः, गुलिदिए' गुप्तेन्द्रियः गुप्तानि=स्वस्वविषयान्नित्तानि इन्द्रियाणि यस्य स तथा — गुप्तवंभयारी ' गुप्तब्रह्म चारी-गुप्तः रक्षितः ब्रह्मणः कुशलानुष्ठानस्य चाचरणं यावज्जीवनं मैथुनविरमणलक्षणः, स यस्यास्तीति तथा 'चाई' त्यागी-सम्यकत्यागवान् 'लज्जू'
शयनोसननिक्षेपादानसंक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टा नियमःकायगुमिस्तु साऽपरा ॥ २ ॥"
तात्पर्य इसका यही है कि कायोत्सर्ग करते समय मुनि को यदि किसी भी प्रकार के उपसर्ग का प्रसङ्ग आजाता है तो वह उस समय जो
अपने शरीर में अनिश्चलता न करात, हुआ-अर्थात् समाधि से विचलित न होता हुआ-स्थिरता कारण करता है एक तो वह कायगुप्ति है,
और दूसरी कायगुप्ति वह है, कि जिसमें शयन, आसन, निक्षेप आदि क्रियाओं में शरीर की चेष्टा का संयमन किया जाता है इस प्रकार वे स्कन्दक अनगार पूर्वोक्त इन मनोगुप्ति आदी से संपन्न बन कर (गुत्ते) गुप्त बन गये । ( गुत्तिदिए ) उन्हों ने अपनी प्रत्येक इन्द्रिय को अपने ग्राह्य विषय से निवृत कर लिया। (गुप्तभयारी यावज्जीव वे मैथुन के परित्याग कर देनेसे गुप्त ब्रह्मवारी बन गये । (चाई ) सर्वथा निःसंग-असंग हो गये । वक्रतापूर्वक व्यवहार करने का उन्हो ने बिलकुल परित्याग कर दिया, इसलिये 'लज्जू' रस्सी की तरह सरल हो
शयनासननिक्षेपादानसंक्रमणेषु च ।
स्थानेषु चेष्टा नियमः कायगुप्तिस्तु साऽपरा ॥२॥ ભાવાર્થ-કાર્યોત્સર્ગ કરતી વખતે કોઈપણ પ્રકારના ઉપસર્ગ આવવા છતાં પણ જે મુનિ પિતાના શરીરને સ્થિર રાખે કાઉસગમાં સ્થિરતા રાખે, તે તે પહેલા પ્રકારની કાયગુપ્તિથી યુક્ત ગણાય છે. બીજા પ્રકારની કામગુપ્તિ એ છે કે જેમાં શયન, આસન નિક્ષેપ વગેરે ક્રિયાઓમાં શરીરની પ્રવૃત્તિઓ નિયમન કરવામાં આવે છે-પ્રતિલેખના, પ્રમાજના, ગુરુ આજ્ઞા વગેરે રૂપ નિયમન કરવામાં આવે છે. સ્કન્દક અણગાર પણ પૂર્વોકત મને ગુપ્તિ વગેરેથી યુક્ત थाथी ( गुत्ते ) शुसिमाथी युत मनी गया. ( गुत्तिदिर ) तेशा गुप्तेन्द्रिय બની ગયા. એટલે કે તેમણે પિતાની બધી ઈન્દ્રિઓને પિત પિતાના વિષयोथी निवृत्त ४२ वधी. (गुत्तभयारी) वन पर्यन्त मानी परित्याग ४२वाथी ते । शुभप्राया। मनी जया. ( चाई ) मिस ARA1-21 २४ गया, ( लज्जू ) होशन पा स२१ २७ गया. सट भाणे लवन
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨