________________
प्रमेयचन्द्रिका टीका श० २ ० १ सू० १३ स्कन्दकचरितनिरूपणम्
६३१
क्षणाय प्रयतते तथा ममापि एकं रत्नं विद्यते यत् प्रदीप्तगृहाद्रक्षणयोग्यमिव विद्यते इति भावः मज्झवि आया एगे भंडे इट्ठे' ममापि आत्मा एक भांडम् = भाण्डरूप एक आत्मा इष्टः वाञ्छितार्थपूरकत्वात्, 'कंते ।' कान्तः कमनीयः हितप्रायकत्वात् 'पिए' प्रियः - सुखोत्पादकत्वात् 'मणुण्णे' मनोज्ञः शुभगतिदायकत्वात् "मणामे" मनोऽमः अक्षय सुखदायकत्वात् 'थेज्जे' स्थैर्यम् स्थिरस्वरूपः, अविनाशित्वात् 'वेस्सासिए ' वैश्वासिकः मोक्ष प्राप्त विश्वासपात्रत्वात् 'संमए' संमतः तत्कृतकार्याणां संमतस्वात् 'अणुमए' अनुमतः =अनु पश्चात् मतः =अनुमतः विपरीतकरणादनन्तरमपि माननीय
-
संरक्षण के लिये प्रयत्न करता है, उसी प्रकार मेरे पास भी एक रत्न मौजूद है जो प्रदिश-जलते हुए घर से रक्षा करने योग्य वस्तु की तरह रक्षा करने योग्य है - यही बात वह प्रदर्शित करते हुए कहते हैं - ( मज्झ वि आया एगे भंडे) कि हे भदन्त ! मेरा आत्मा भी एक भाण्ड कीमनी वस्तु है | ( इट्ठे ) वह मुझे वांछिन मनोरथरूप अर्थ का पूरक होने से इष्टरूप है | ( कंते) हितकी प्राप्ति कराने वाला होने से - कान्त है । (पिए) अव्याबाध सुख का उत्पादक होने से प्रिय है । (मणुण्णे) शुभगति का दाता होने से मनोज्ञ है । ( मणामे) अक्षय सुखका दाता होने से मनोम है। (थेज्जे) अविनाशी होने से स्थिररूप है। (वेस्सासिए) मोक्ष की प्राप्ति में विश्वास पात्र होने से वैश्वासिक है । ( संमए) तत्कृत कार्यों को संमत होने से संमत है । ( अणुमए) विपरीत आचरण करने पर भी माननीय होने से - अनुकूल प्रवृत्ति नहीं करने पर भी मान्य
જ
તથા કલ્યાણકારી થઇ પડશે, એવી જ રીતે મારી પાસે પણ એક રત્ન મેાજૂદ છે કે જેની પણ ખળતા ઘરમાંથી રક્ષા કરવા લાયક વસ્તુની જેમ-રક્ષા કરવાની ०४३२ छे. शेत्र बात आ रीते प्रगट उरवामां भावी छे - ( मज्झ वि आयाएगे भंडे ) हे भगवान् भारो आत्मा पशु शेड अतिशय डीमती वस्तु छे. ते शोड़ लांड ( यात्र ) ना समान छे. ( इट्ठे ) ते भारे भाटे वांछित अर्थनी
२४ होवाथी छष्ट ३५ छे, ( कंते ) ते हितनी प्राप्ति ४२नार होवाथी अन्त छे, (पिए) ते अव्याजाध सुख हेनार होवाथी भने प्रिय छे, ( मणुण्णे ) ते शुभगति भयावनार होवाथी भनोज्ञ छे, (मणा मे ) अक्षय सुमनो हाता होवाथी भनाभ छे, ( थेज्जे ) अविनाशी होवाथी स्थि२३५ छे, ( वेस्सासिए ) भोक्षनी प्राप्ति भाटे विश्वास पात्र होवाथी वैश्वासि छे. ( समए ) तेनी भारइत अशयेसां अर्यो साथै सभांत होवाथी सभत छे, ( अणुमए ) ( विपरीत આચરણુ કરવા છતાં પણ માનનીય હેાવાથી-અનુકૂલ પ્રવૃત્તિ ન કરવા છતાં
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨