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________________ प्रमेयचद्रकाटोका श०१ उ०६ सू० ४ लोकालोकादिपूर्वपश्चात्त्वे रोहानगारप्र० ४९ सइ' वन्दते नमस्यति 'वंदित्ता नमंसित्ता' वन्दित्वा नमस्यित्वा 'नच्चासण्णे नाइदूरे' नात्यासन्ने नातिदूरे उचितप्रदेशे 'सुस्मृसमाणे' शुश्रूषमाणः भगवद्वाक्यं श्रोतुमिच्छन् ‘णमंसमाणे' नमस्यन् नमनादिना विनयं प्रकटयन् 'अभिमुहे' अभिमुखः सम्मुखे स्थित्वेत्यर्थः विगएणं' विनयेन=विनयपूर्वकं 'पंजलिउडे' प्रा.लिपुटः =संयोजितहस्तद्वयः सन् ‘पज्जुवासमाणो एवं वयासी' पर्युपासीनः सेवमानः एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत-कथितवान् । किमवादीदित्याह-'पुट्विं भंते 'इ. 'पुब्धि भंते! लोए पच्छा अलोए' पूर्व भदन्त! लोकः पश्चादलोकः अथवा 'पुट्विं अलोए पच्छा लोए' पूर्वमलोकः पश्चाल्लोकः, हे भदन्तः किं पूर्व लोकः षड्जीवनिकायरूपः अस्ति पश्चादलोकः धर्मास्तिकायादिरहितः केवलाकाशरूपः । अस्ति, अथवा पूर्वमलोकः पश्चाल्लोकः अस्तीति प्रश्नाशयः । भगवानाह --' रोहे' आदक्षिण प्रदक्षिण किया। (करित्ता वंदइ नमसइ) आदक्षिण प्रदक्षिण पूर्वक वंदना की नमस्कार किया । " वंदित्ता नमंसित्ता " वन्दना नमस्कार करके, ( नच्चासन्ने नाइदूरे ) न अति निकट और न दूर किन्तु उचित ऐसे स्थान पर (सुस्सूमाणे णमंसमाणे) भगवद्वचनको सुननेकी अभिलाषा से फिर वे नमस्कार करते हुए प्रभु केसंमुख बैठ कर उन्होंने (विणएणं पंजलिउडे) विनयपूर्वक हाथ जोडकर (पज्जुवासमाणे एवं वयासी) पर्युपासना करते हुए प्रभु से इस प्रकार पूछा 'पुवि भंते!' इ० (भंते !) हे भदन्त ! (पुस्वि लोए ? पच्छा आलोए ? पुटिव अलोए पच्छा लोए ? ) पहिले लोक है और बाद में अलोक है क्या ? अथवा पहिले अलोक है और बाद में लोक है क्या ? षट् जीवनिकायरूप स्थान का अर्थात् जहाँ पर जीवादिक छहों द्रव्य पाये जाते हैं ऐसे आकाश का नाम लोक है और जहां धर्मास्तिकायादिक द्रव्य नहीं पाये पार "आयाहिणपयाहिण करेइ” साइक्षिण-प्रदक्षिणा ४३१ "करित्ता बदइ नमसई" माइक्षिण-प्रक्षिपूर्व नभ२४।२ ४ा." वंदित्ता नम सित्ता” । नभर २ ४शने, “णचासन्ने णाइरे" मति२ ५४ नही अने मति न ५५ नहीं सेवा योग्य स्थाने, “सुरसूसमाणे णमंसमाणे " मानना क्यनी समजवानी અભિલાષા સાથે ફરીથી નમસ્કાર કરતા છતા પ્રભુની સામે બેસી ને ત્યાર બાદ "विणएतां पंजलिउडे" विनयपूर्व यीने “पज्जुवासमाणे एव वयासी" ५युपासाशन तम भावान मडावी२२ मा प्रभारी पूच्यु- "पुटिवभंते" त्याल. "भंते" मगवान ! "पुव्वि लोए ? पच्छा अलोए ? पुव्वि अलोए ? पच्छा लोए ?" पडसi मने त्या२॥४ असो छ ५सा २४ भने त्यार બાદ લેક છે ? જ્યાં જીવાદિક છએ દ્રવ્ય હોય છે. એવા આકાશનું નામ લેક भ-७ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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