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________________ भगवतीसूत्रे 'कालो णं सिद्धे अणते ' कालत: खलु सिद्धोऽनंतः 'भावओ णं सिद्धे अणंते' भावतः खलु सिद्धोऽनन्तः, द्रच्यक्षेत्रापेक्षया सिद्धस्यान्तत्त्वं कालभावापेक्षया चानन्तत्वम् भावतो ज्ञानदर्शनाऽगुरुलघुपर्यायस्वरूपेण चान्तस्याभावादिति तस्मात् हे स्कन्दक लोकादि पदार्थः द्रव्यक्षेत्राभ्यां सांत एव कालभावाभ्यां त्वनन्त एव भवतीति । इति चतुर्थप्रश्नस्योत्तरम् ॥ ४ ॥ लोकादारभ्य सिद्धपर्यन्तवस्तुषु सांतत्वानंतत्वविषयकसंशयस्य निराकरणं कृत्वा साम्प्रतं मरणविषयकपनं स्पष्टयति-'जे वि य' इत्यादि । 'जे वि य ते खंदया' योपि च ते स्कन्दक ! 'इमेयारूवे अन्झथिए चिंतिए जाव समुप्पज्जि स्था ' अयमेतद्रूप आध्यात्मिकश्चिंतितो यावत् समुदपद्यत, इह यावत्करणात् 'कहार करते हैं (से तं व्यओण सिद्धे स अंते, खेत्तओणं सिद्धे स अंते) सान्तद्रव्य से सिद्ध अन्तसहित है तथा क्षेत्र से भी सिद्ध अन्तसहित है परन्तु ( कालाओ णं सिद्धे अणंते भावओ णं सिद्धे अणंते ) काल से सिद्ध अन्तरहित है और भाव से भी सिद्ध अन्तरहित है। इसलिये हे स्कन्दक ! लोकादि पदार्थ द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से सांत हैं और काल एवं भाव की अपेक्षा से वे अनंत हैं । इस प्रकार का यह चतुर्थप्रश्न का उत्तर है। इस तरह लोक से लेकर सिद्धतक की वस्तुओं में सान्तताअनन्तता विषयक संदेह का निवारण करके अब भगवान् मरण विषयक प्रश्न का स्पष्टीकरण करते हैं-'जे वि य ते खंदया इमेयारूवे अज्झथिए चितिए जाव समुप्पज्जित्था" हे स्कन्दक ! जो तुम्हें यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ है, कि “से तं व्यओ ण सिद्धे स अते, खेत्तओ ण सिद्ध स अंते " द्रव्य अने क्षेत्रनी अपेक्षा सिद्ध मत सहित छ, ५४ " कालओ ण सिद्धे अणते, भावओण सिद्धे अणते " मने सावनी अपेक्षाये सिद्ध मतसडित छे. આ પ્રમાણે ચેથા પ્ર.નું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવ્યું છે, તે સ્કન્દક ! લેક વગેરે પદાર્થો દ્રવ્ય અને ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ સાન્ત (અંત સહિત) છે, પણ કાળ અને ભાવની અપેક્ષાએ અનંત (અંત રહિત) છે. આ રીતે લેકથી શરૂ કરીને સિદ્ધ સુધીની સાન્તતા અને અનંતતાની બાબતના પ્રશ્નોનું સમાધાન કરીને હવે ભગવાન મરણ વિષયના પ્રશ્નનું સમાધાન કરે છે. ____“जे वि य ते खंदया! इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए जाव समुप्पज्जित्था " હે સ્કન્દક! તમને આ પ્રકારને આધ્યાત્મિક, ચિત્િત, (યાવતુ) મનોગત શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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