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भगवती सूत्रे
कारकः, ' समणस्स भगवओं महावीरस्स ' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अदूरसामंते' अदूरसामन्ते, नातिदूरे नातिसमीपे उचितस्थाने 'उड जाणू' उर्ध्वजानु, उत्कुटुकासनवान् 'अहो सिरे' अधः शिराः, अधोमुखः- नोर्ध्वं न तिर्यगू वा क्षिप्तदृष्टि: 'झाणकोडोवगए' ध्यानकोष्ठो रगतः, ध्यानं, - धर्मशुक्लध्यानं, तदेव कोष्ठ इत्र कोष्ठः ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः, 'संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ' संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति, तिष्ठतीत्यर्थः, 'तए णं से रोहे अणगारे' ततः खलु स रोहोऽनगारः, 'जायसड्डे ' जातश्रद्धः, जाता प्रागभूता संपति सामान्येन प्रवृत्ता श्रद्धा = वक्ष्यमाणतत्त्वनिर्णयात्मिका वाञ्छा यस्य स तथा ( 'जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी' यावत्पर्युपासीन एवमवादीत् - अत्र यावच्छन्देनये रोह नामक अनगार ( समणस्स भगवओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् महावीर के पास ( अदूरसामंते) उचित स्थान पर न अतिदूर और न अधिक पास इस रूप से उनके पास सन्मुख (उड जाणू) उत्कुटुकासन से (अहो सिरे) नीचे दृष्टि रखे हुए ( झाणकोट्टोवगए ) धर्मध्यान और शुक्लध्यान रूप कोष्ठ में प्राप्त हुए ( संजमेण तवसा अप्पा भावेमाणे विहरs ) संयम और तप से वे उस समय अपनी आत्मा को भावित करते हुए बैठे थे । (तएणं से रोहे अणगारे जायसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी इसके बाद उत्पन्नश्रद्ध-श्रद्धा संपन्न बने हुए यावत् प्रभु की पर्युपासना करते हुए उन रोह नामक अनगार ने प्रभु से इस प्रकार पूछा " जायसड्डे " यहां पर श्रद्धा शब्द का अर्थ तत्वों की निर्णय करने की वाञ्छा है यह वाञ्छा उनको पहिले उत्पन्न नहीं हुई थी । अभी २ ही सामान्य रूप से उत्पन्न हुई है । यही बात जायस सेवा १२नारा देता. “समणस्स भगवओ महावीरस्स” ते सेवा रोड नाभना अणुगार श्रमण लगवान भडावीरनी पासे “भदूरसामंते ” उचित स्थाने - वधारे २ पशु नहीं अने वधारे न पशु नहीं सेवा स्थाने-तेभनी सन्भु' उडूढ' जाणू” उत्टासने, “ अहोसिरे” नीयुं भस्त राणीने "झाणकोट्टोत्रगए" धर्म ध्यान मने शुध्यानइय अहीमा रहेता 'संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ" सयभ मने तपथी पोताना आत्माने लावित उरता मेठा हुता. "तएण से रोहे अणगारे जायसडूढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी” त्यार माह उत्पन्न थयेस छे श्रद्धा ने मेवा ते रोड भगुगार " यावत् " प्रभुनी पर्युपासना हरीने अनुने या प्रमाणे पूछ - " जायड्ढे અહીં શ્રદ્ધા શબ્દના અર્થ તવાને નિર્ણય કરવાની વાંછા (અભિલાષા) સમજવા. તે વાંછા તેમનામાં પડેલાં ઉત્પન્ન થઈ ન હતી. પણ અત્યારે જ સામાન્ય રૂપે સર્વ પ્રથમ ઉત્પન્ન થઈ છે,
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
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