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________________ प्रमैयचिन्द्रका टीका श० २ उ० १ सू. १० स्कन्दकचरितनिरूपणम् ५४७ जानासि, हे गौतम कास्ति एतादृशो ज्ञानी तपस्वी वा यो हि मम हृदयान्तनि. हितमप्यर्थ ज्ञात्वा तुभ्यं प्रकाशितवान् येन त्वमपि ममान्तर्विचारितं सम्यगवगत्य मां कथयसीति भावः । 'तएणं से भगवं गोयमे खंदयं कच्चायणस्सगोत्तं एवं वयासी' ततः खलु स भगवान् गौतमः स्कन्दकं कात्यायनगोत्रमेवमवादीत् 'एवं खलु खदया ' एवं खलु हे स्कन्दक ? ' मम धम्मायरिए ' मम धर्माचार्यः, 'समणे भगवं महावोरे' श्रमणो भगवान् महावीरः 'उप्पन्ननाणदंसणधरे' उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः · अरहा' अर्हन् केवलज्ञानकेवलदर्शनाईत्वात् , 'जिणे' जिनः रागादीनां जेतृत्वात् केवली' केवली असहाय ज्ञानवत्वात् , यतो यं तुम जानते हो । तात्पर्य कहने का यह है कि गौतम से स्कन्दक कह रहा है कि हे गौतम! ऐसा ज्ञानी अथवा तपस्वी कौन है कि जिसने मेरे हृद्यस्थित अर्थ को भी जान कर तुम से प्रकाशित किया है कि जिससे तुम भी मेरे अन्तर्विचारित अर्थको अच्छी तरह जानकर मुझ से कह रहे हो । स्कन्दक की इस प्रकार से बात को सुन कर गौतम ने उस कात्यायन गोत्री स्कन्दक से कहा सुनो स्कन्दक मैं तुम्हें बताता हूं यहां (मम धम्मायरिए ) मेरे धर्माचार्य (समणे भगवं महावीरे) श्रमण भगवान महावीर विराजमान हैं वे (उप्पन्ननाणदंसणधरे) उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन के धारी हैं (अरहा) अर्हन हैं अर्थात् उप्तन्न केवल ज्ञान और केवल दर्शक केधारी वे इस लिये हैं कि वे उनके योग्य हैं (जिणे) उनके योग्य वे इस लिये हैं कि उन्होंने अपनी आत्मा से राग द्वेष आदिको जीत लिया है। रागद्वेष आदि उन्होंने जीत लिये हैं इस कारण वे केवली, असहाय ज्ञानवाले होने से केवली है-केवलज्ञान शाली हैं ' इसी लिये આ પ્રમાણે છે હે ગૌતમ! એ જ્ઞાની અથવા તપસ્વી કેણુ છે કે જેણે મારા મને ગત વિચારેને જાણીને તમારી પાસે પ્રકટ કર્યા છે. જેથી તમે પણ મારા મનોગત વિચારોને બરાબર જાણી ગયા છે? સ્કન્દકને આ પ્રકારને प्रश्न सामजीन गौतमस्वामी तेने ४ह्यु, २४४४ ! " मम धम्मायरिए" भा। घायाय, 'समणे भगवं महावीरे" श्रमाय भगवान महावीर सही मिराभान छ. “ उप्पन्ननाणदसणधरे" ते अत्पन्न थयेसा सज्ञान भने शनना था२४ छ ( अरहा) ते! २५६ छ. से 2 ते अत्पन्न કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શનના ધારક એ માટે છે કે તેઓ તેને માટે એગ્ય છે "जिणे " तेसो लिन छ. ४।२९५ तेभरे रागद्वेष वगेरेने ती बायां छे. " केवली " तो वजी छ अवशानी छे. तेथी तमे। तीय पच्चुप्पग्रमणाग શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨
SR No.006316
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1114
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size65 MB
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