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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२ उ० १ सू० १० स्कन्दकचरितनिरूपणम् ५३९ यत्रैव स्कन्दकः कात्यायनगोत्रस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य स्कन्दकं कात्यायनगोत्रमेवमवादी-हे स्कन्दक ! स्वागतं स्कन्दक ! सुस्वागतं, स्कन्दक ! अन्वागतं, स्कन्दक ! स्वागतमन्वागतं, तद नूनं त्वं स्कन्दक! श्रावस्त्यां नगयों पिगलकेन निग्रंथेन वैशालिकश्रावकेणेदमाक्षेपं पृष्टः-मागध ! किं सांतो लोकोऽ. ही शीघ्र अपने आसन से ऊठे हैं और ( अन्भुष्ठित्ता ) और ऊठकर (खिप्पामेव ) शीघ्र ही (पच्चुवगच्छइ) उसके सामने जाते है । (पच्चुवगच्छित्ता ) सामने जाकर फिर वे ( जेणेव खंदए कच्चायणस्सगोत्ते तेणेव उवागच्छह ) जहां कात्यायन गोत्रवाला वह स्कन्दक था वहां पर गये । (उवागच्छित्ता कच्चायणस्स गोत्तं खंदयं एवं वयासी) वहां आकर के उन्हों ने कात्यायन गोत्र वाले उस स्कन्दक से ऐसा कहा (खंदया. सागयं ) हे स्कन्दक तुम्हारा स्वागत है ( खंद्या सुसागयं) हे स्कन्दक तुम्हारा सुस्वागत है । (खंदया अणुरागयं ) हे स्कन्दक ! तुम्हारा अन्वागत है ( खंदया सागयमणुरागयं) हे स्कन्द क ? तुम्हारा स्वागत अन्वा गत है । (खंदया ) हे स्कन्दक ! ( से गूणं तुमं खंद्या सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेव पुच्छिए तुम से श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगलक निग्रन्थ ने इन प्रश्नों को इस प्रकार पूछा कि (मागहा) मागध ! ( किं स अंते लोए अणंते लोए ? ) लोक अन्त सहित है अथवा अन्त विना
तुरत ॥ ४या ( अब्भुद्वित्ता) हीन (खिप्पामेब ) तुरत ( पच्चुवगच्छद) तेनी सामे गया. ( पच्चुवग च्छिता जेणेब खदए कच्चायणस्सगोत्ते तेणेव उवा. गच्छइ) ज्या त्यायन गोत्रीय २४४४ परिवा४४ हतो त्या सुधा तेसो गया (उवागच्छित्ता कच्चायणस्त गोतं हृदयं एवं वयासी) त्यां न तभी अत्यायन यात्री २४४४ने २मा प्रमाणे धुं (खदया सागय) २४६४ तभार स्वागत ॐ (खदया सुसागयं) डे २७४४ ता३ सुत्रात (खदया ! अणुरागये ) હે સ્કન્દક તમારું આગમન અન્વાગત હો તમારૂં અહીં આગમન થવાનું अथित " थयु छ तेथी ४३२ ४८या था। (खदया सागयं अणुरागयं ) 3 २४४४ तमा३ स्वागत मन A nd 3 ( खदया ! ) 3 २४-४४ (से णं तुम खंदया सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालिय सावएणं इणमक्खेवपुच्छिए ) तमने श्रावस्ती नगरीमा पैशालि श्राप पिस निथे ।
२ प्रश्न पूछया ॥ (मागहा ) 3 भागध (कि सते लोए, अणते लोए १) as अन्त सहित छे. 3 अन्त २हित छे. (तं चेव जेणेव इई
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૨